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________________ मरणकण्डिका - ३१२ के लोग घबराये हों, उनके मुख पर भय, विषाद एवं दीनता या असमर्थता झलक रही हो उन घरों में प्रवेश न करें अथवा वहाँ न ठहरें। सभी भिक्षार्थियों का जहाँ तक प्रवेश है वहाँ से आगे न जावें। अपना आगमन बताने के लिए याचना या अव्यक्त शब्द न करें। एकान्त घर में, उद्यान गृह में, केले, लता तथा झाड़ियों आदि से बने घरों में आदरपूर्वक आतिथ्य प्राप्त होने पर भी प्रवेश न करें। जो स्थान जीव-जन्तु से रहित हो, पवित्र हो, रोक-टोक से रहित हो एवं आने-जाने के मार्ग से रहित हो वहाँ सुकुल गृहस्थों की प्रार्थना से ठहरें। प्रश्न - साधु को अपनी एषणा समिति की शुद्धि के लिए आहार के समय और क्या-क्या सावधानियाँ आवश्यक हैं ? उत्तर - गृहप्रवेश कर नवधा भक्ति के उपरान्त साधु सम और छिद्र रहित जमीन पर दोनों पैरों के मध्य में मात्र चार-अंगुल का अन्तर रख कर निश्चल खड़ा हो, उस समय दीवाल या स्तम्भादि का सहारा न ले। दाता के आने-जाने का मार्ग, उसके खड़े होने का स्थान तथा करछलु आदि बर्तनों की शुद्धता की ओर ध्यान रखे । जो स्त्री बालक को दूध पिलाती हो, पाँच मास से अधिक गर्भिणी हो, मुख पर घूघट हो, अथवा लज्जा से मुख फेर कर खड़ी हो एवं जो दाता शंकालु हो, गूंगा हो, रोगी, अतिवृद्ध, बालक, पागल, पिशाच, मूढ़, अन्धा, डरपोक, दुर्बल एवं दाता के गुणों से रहित या बिलकुल अनभिज्ञ हो उनसे आहार न लेवे। टूटे-फूटे बर्तनों से या जूठे पात्रों से या कमलपत्र से ढके हुए बर्तनों से आहार ग्रहण न करे। मांस, मधु, मक्खन और कन्द सर्वथा ग्रहण न करे, बिना विदारे फल, हरे मूल, पत्र एवं अंकुरित वनस्पति और धान्य भी ग्रहण न करे, इन पदार्थों से स्पर्शित हो जाने वाला आहार भी ग्रहण न करे । जिस भोजन का रूप, रस, गन्ध बिगड़ गया हो, जिस पर फफून्द आ गई हो, जिसमें दुर्गन्ध आ रही हो, जो पुराना या अमर्यादित हो गया हो तथा जिसमें जीव-जन्तु गिर गये हों ऐसा पदार्थ न तो खाना चाहिए, न किसी को देना/ दिलाना चाहिए और न वह छूना ही चाहिए। जो आहार छियालीस दोषों में से और बत्तीस अन्तरायों में से एक भी दोष या एक भी अन्तराय से दूषित हो तो वह भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। ये सब एषणा शुद्धि के समीचीन उपाय है। असत्य महाव्रत की भावनाएँ हास्य-लोभ-भय-क्रोध-प्रत्याख्यानानि योगिनः । सूत्रानुसारि-वाक्यं च, द्वितीये पञ्च भावनाः ॥१२६३ ॥ अर्थ - हास्य का त्याग, लोभ का त्याग, भय का त्याग, क्रोध का त्याग और सूत्रानुसार वचन बोलना, साधुओं के भाने योग्य द्वितीय व्रत की ये पाँच भावनाएँ कही गई हैं ।।१२६३ ।। प्रश्न - “सूत्रानुसार सम्भाषण करना अर्थात् बोलना", इसका क्या भाव है ? उत्तर - सत्य, असत्य, सत्यासत्य एवं न सत्य न असत्य अर्थात् अनुभय, इस प्रकार वचन के चार भेद हैं। इनमें से असत्य और उभय ये दो प्रकार के वचन साधु को नहीं बोलने चाहिए। झूठ बोलने के जितने कारण हैं उन सब को त्याग देने पर ही असत्य वचन का त्याग हो सकता है, अन्यथा नहीं। आगमानुसार साधु को सत्य और अनुभय ये दो प्रकार के वचन ही बोलने चाहिए, यही 'सूत्रानुसार संभाषण' का भाव है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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