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________________ मरणकण्डिका - ३६३ अचौर्य महाव्रत की भावनाएँ असम्मताग्रहः साधो:, सम्मतासक्त-बुद्धिता। दीयमानस्य योग्यस्य, गृहीतिरुपकारिणः ।।१२६४॥ अप्रवेशोऽननुज्ञाते, योग्य-याञ्चा-विधानतः। तृतीये भावना: पञ्च, प्राज्ञैः प्रोक्ता महाव्रते ॥१२६५ ।। अर्थ - असम्मत का अग्रहण, सम्मत में भी अनासक्त बुद्धि, दीयमान योग्य वस्तु में अपनी उपकारी वस्तु का ही ग्रहण, अननुज्ञात में अप्रवेश और योग्य वस्तु की याचना तृतीय अचौर्य महाव्रत की ये पाँच भावनाएँ प्राज्ञ पुरुषों द्वारा कही गई हैं ॥१२६४-१२६५ ।। प्रश्न - इन पाँनों भावनाओं का विशेष नितरण किस प्रकार है ? उत्तर - इनका विशेष विवरण इस प्रकार है - असम्मत का अग्रहण - ज्ञानादि के उपकरण एवं कमण्डलु आदि जिस साधु के हैं उनकी स्वीकृति बिना उन्हें ग्रहण नहीं करना। ___ सम्मत में भी अनासक्ति - स्वामी की स्वीकृति मिलने पर स्वीकार की गई वस्तु में भी आसक्ति नहीं रखना । अर्थात् यह वस्तु बहुत सुन्दर है, यदि मैं इसे वापिस न दूं तो कैसा रहेगा? अथवा जब तक वे मुझे ऐसी ही वस्तु मंगा कर नहीं देंगे तब तक यह वस्तु मैं वापिस नहीं दूंगा, या ऐसी ही वस्तु मैं मंगा कर ही चैन लूँगा, इत्यादि प्रकार के आसक्तिरूप परिणाम नहीं करना। दीयमान में भी मात्र उपकारी वस्तु का ही ग्रहण - अन्य साधुजनों द्वारा योग्य वस्तु दी जाने पर भी "बस, इतनी वस्तु से ही मेरा प्रयोजन सिद्ध हो जायगा, मुझे इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं चाहिए" ऐसी उत्तम भावना से प्रयोजनभूत का ही ग्रहण करना। अननुज्ञात में अप्रवेश - आहारचर्या के समय एवं वसतिका में गृह-स्वामी की आज्ञा बिना घर में प्रवेश नहीं करना । अधवा “आप यहाँ ठहों" इस प्रकार कह कर जब तक गृहस्वामी आज्ञा न दे तब तक वहाँ र आहार हेतु रुके, न वसतिका में ही प्रवेश करे । अथवा गृहस्वामी ने प्रवेश के लिए मना कर दिया हो तो भी प्रवेश न करे। योग्य वस्तु की याचना - ज्ञान एवं संयमोपकरण की आपको आवश्यकता हो और वे उपकरण शास्त्र-अविरुद्ध हों तो उन्हें भी दूसरों से याचना करके ही लेना। इस प्रकार अचौर्यव्रत की ये पाँच भावनाएँ
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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