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________________ मरणकण्डिका - ३६४ ब्रह्मचर्यव्रत की पाँच भावनाएँ महिलालोकनालापौ, चिरन्तन-रत-स्मृतिम् । वासं संसक्त-वस्तूनां, बलिष्ठाहार-सेवनम् ।।१२६६ ॥ योगिनो मुच्यमानस्य, विरागीभूत-चेतसः । तुरीये भावनाः पञ्च, सम्पद्यन्ते महाव्रते ।।१२६७ ॥ अर्थ - स्त्री के रूप का अवलोकन, स्त्रियों से सम्भाषण, पूर्व में भोगे हुए भोगों की चिरकाल तक स्मृति, स्त्रियों द्वारा संसर्गित स्थान पर निवास या उठना-बैठना और बलिष्ठ आहार का सेवन, इन पाँच प्रकार के कार्यों को छोड़ देने वाले विरागी चित्त युक्त साधु के चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाँच भावनाएँ सम्पन्न होती हैं ।।१२६६-१२६७ ।। अपरिग्रह महाव्रत की भावनाएं यते: स्पर्श रसे गन्धे, वर्णे शब्दे शुभाशुभे। रागद्वेष-परित्यागो, भावना: पञ्च पञ्चमे ॥१२६८ ।। अर्थ - शुभ और अशुभ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द में क्रमश: राग और द्वेष का त्याग कर देना साधुओं के पाँचवें परिग्रहत्याग महाव्रत की पाँच भावनाएँ कही गई हैं ॥१२६८ ।। प्रश्न - भावना किसे कहते हैं और इनसे क्या लाभ है ? उत्तर - वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम की, चारित्रमोह कर्म के उपशम या क्षयोपशम की एवं अंगोपांग नामकमोदय की अपेक्षा रखने वाले आत्मा के द्वारा जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, उन्हें भावना कहते हैं। अथवा जाने हुए अर्थ को पुन: पुन: चिन्तन करना भावना है। लाभ - जैसे औषधि में आँवले की या पीपल आदि के रस की बार-बार भावना देने से उसके गुणधर्म या उसकी शक्ति बढ़ जाती है; यदि सौ बार भावना दी गई है या हजार बार भावना दी गई है तो उस औषधि में रोगनाशक शक्ति शतगुणी या सहस्रगुणी बढ़ जाती है, वैसे ही बार-बार भावनाएँ भाने से महाव्रतों की शक्ति वृद्धिंगत हो जाती है। उनसे अधिक-से-अधिक कर्म रूपी रोग नष्ट हो जाते हैं अर्थात् निर्जरा हो जाती है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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