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________________ परणकण्डिका - ४२१ अर्थ - पाप उत्पन्न करने में माता सदृश यह मायाचारी रूप धरित्री जीवों को अनेक प्रकार के दुख देती है, ऐसा जानकर विमल यश के धारक बुद्धिमान साधुजन इस माया कषाय को आर्जव धर्मरूपी वज्र से नष्ट कर देते हैं ॥१५११॥ इस प्रकार मायादोष के विजय का कथन पूर्ण हुआ। लोभ कषाय पर विजय प्राप्त करने के उपाय सम्पद्यते सपुण्यस्य, स्वयमेत्यान्यतो धनम् । गरज. सप्तमपि सिर, निपुण माग्ने ॥ अर्थ - लोभ करने पर भी पुण्यहीन मनुष्य के हाथ में आया हुआ भी धन क्षणमात्र में विलय हो जाता है और वहीं धन पुण्यवानों के पास अन्य स्थान से स्वयं आकर प्राप्त हो जाता है।।१५१२ ॥ प्रश्न - धनप्राप्ति का मूल कारण अथवा उपाय क्या है ? उत्तर - धनप्राप्ति का मूल निमित्त धन का लोभ नहीं है अपितु पुण्य' ही उसका मूल हेतु है अतः जब धन पुण्य का ही अनुसरण करता है, अर्थात् पुण्योदय में ही प्राप्त होता है तब उस धनार्जन के लिए रात्रिभोजन, लोभ, मायाचारी, कृपणता एवं हिंसादि में प्रवृत्ति करके दूसरों के प्रति अन्याय करना योग्य नहीं है। ऐसा चिन्तन कर धनासक्ति का त्याग कर देना चाहिए। संसारेऽटाट्यमानेन, प्राप्ताः सर्वे सहस्रशः। विस्मयो लब्ध-मुक्तेषु, कस्तेषु मम साम्प्रतम् ॥१५१३॥ __ अर्थ - संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने सर्व सम्पत्तियाँ और सर्व वैभव सहस्रों बार प्राप्त किये हैं। त्याग करके पुनः प्राप्त होने वाले वैभव में अब आश्चर्य कैसा ? ||१५१३।। लोक-द्वये दुःखफलानि दत्ते, गार्धक्य-तोयेन विवर्धितोऽयम् । सन्तोष-शस्त्रेण निकर्तनीयः, स लोभ-वृक्षो बहुलः क्षणेन ।११५१४॥ अर्थ - जो गृद्धतारूपी जल से वृद्धिंगत हुआ है और दोनों लोकों में भयंकर दुख रूपी फल देता है, ऐसे इस बहुत विस्तृत लोभ रूपी वृक्ष को सन्तोष-रूपी शस्त्र द्वारा तत्काल काट देना चाहिए ||१५१४ ।। कषाय-चौरानति-दुःखकारिणः, पवित्र-चारित्र-धनापहारिणः । शृणाति यश्शारु-चरित्र-मार्गणैः, कर-स्थितास्तस्य मनीषिताः श्रियः ।।१५१५ ॥ इति लोभ-निर्जयः। अर्थ - पवित्र चारित्ररूपी धन को लूटने में तत्पर इन अतिदुखदाई कषायरूपी चोरों को जो अपने निर्दोष आचरण रूपी बाणों से नष्ट कर देता है उस महापुरुष के हाथ में मनोवांछित सम्पत्ति अर्थात् मोक्षरूपी लक्ष्मी स्थित हो चुकी है, ऐसा मानना चाहिए ॥१५१५ ।। इस प्रकार लोभ विजय का कथन पूर्ण हुआ। १. अर्थासक्तिरर्थ-लाभे मम न निमित्तमपि तु पुण्यमित्यनया..... । भगवती आराधना पृ. ६८०, जीवराज ग्रन्थमाला ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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