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________________ मरणकण्डिका १०० - अर्थ - जो साधुजन भावशुद्धि के बिना भी उत्कृष्ट तप करते हैं उन्हें आत्मशुद्धि की प्राप्ति नहीं होती, उनकी वह तप-क्रिया, केवल बाह्य लेश्या मात्र के लिए होती है || २६६ ॥ - प्रश्न भाव शुद्धि से क्या अभिप्राय है? उत्तर - काय सल्लेखना और कषाय सल्लेखना इन दोनों के संयोग से ही मोक्षार्थी क्षपक के प्रयोजन की सिद्धि होती है। यदि आयु अवशेष है तो बारह वर्ष पर्यन्त अनेक प्रकार के तप द्वारा काय सल्लेखना का उपक्रम किया जाता है, क्योंकि ली हुई अवधि के भीतर ही काय कृश करनी होती है। यदि काय कृश नहीं होगी तो समय पर शरीर नहीं छूटेगा, तब प्रतिज्ञा भंग होगी; अतः अधिकतम ध्यान या उपयोग बाह्यतपों की ओर आकर्षित होता रहता है । ये अनशनादि तप बाह्य में प्रदर्शित होते हैं और आत्मा के साथ लगे हुए कषाय अध्यवसान स्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इन तपों की प्रकर्षता को देखकर यदि संघ या समाज बहुमान प्राप्त होता है तब क्षपक का मन आह्लाद से भर उठता है। अर्थात् राग एवं अभिमान की उद्भूति हो उठती है और यदि बहुमान या विशेष सत्कार या वैयावृत्य आदि नहीं हो पाया तो मन खेद खिन्न हो उठता है या कभी ख्याति, पूजा, लाभ की चाह रूपी दाह में दग्ध हो जाता है। इस प्रकार राग-द्वेष आदि विकारी भावों के वेग में बहता हुआ मन आत्मविशुद्धि सम्बन्धी अपने लक्ष्य को भूल जाता है। तब जैसे ताप के फैलते शीतलता भाग जाती है वैसे ही राग-द्वेष की उत्पत्ति होते ही भावसंयम पलायमान हो जाता है। उस समय निस्सार कदली स्तम्भ सदृश मात्र बाह्यतप के भार को ढोता हुआ क्षपक आत्मविशुद्धि के अभाव में तप करते हुए भी कर्मनिर्जरा नहीं कर पाता, जबकि तप का कार्य कर्मनिर्जरा ही है। कषाय सल्लेखना का अर्थ है आत्मा की मलिनता के कारणभूत कषाय परिणामों को अर्थात् राग, द्वेष, अभिमान आदि विकारी भावों को कृश करना। अर्थात् उनका उपशमन होना, इसी का नाम भाव-विशुद्धि या आत्मविशुद्धि है। जैसे अग्नि के बाह्य ताप से स्वर्ण के अभ्यन्तर की किट्ट कालिमा नष्ट हो जाती है और वह स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही बाह्य तप के ताप से आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध को प्राप्त राग-द्वेष रूपी किट्ट कालिमा का अभाव हो जाना और आत्मा का स्व-स्वभाव में स्थित हो जाना; इसी का नाम भावशुद्धि या आत्मविशुद्धि है । कषायों को कृश करने की आवश्यकता कषायाकुल- चित्तस्य, भावशुद्धिः कुतस्तनी । यतस्ततो विधातव्या, कषायाणां तनूकृतिः ॥ २६७ ।। अर्थ - जिस क्षपक का चित्त कषायों से आकुलित है, उसके भावशुद्धि कहाँ से हो सकती है? अतः कषायों को अवश्य ही कृश करना चाहिए || २६७ ॥ कषायों को कृश करने के उपाय जेतव्या क्षमया क्रोधो, मानो मार्दव सम्पदा । आर्जवेन सदा माया, लोभः सन्तोष-योगतः ॥ २६८ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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