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________________ मरणकण्डिका - १२४ समाधि अर्थात् एकाग्रता नामक गुण की प्राप्ति होती है ।।३३०॥ प्रश्न - कार्यसिद्धि के लिए कारण आवश्यक क्यों हैं और गुणपरिणाम आदि नौ कारण समाधि रूप कार्य की सिद्धि कैसे करते हैं ? उत्तर - कारणों का संग्रह किये बिना इष्ट कार्य की सिद्धि कदापि नहीं होती और कारणों का संग्रह तब किया जाता है, जब कार्य करने का भाव जाग्रत होता है। जैसे मन में बड़ा बनाने का विचार आने पर ही कुम्भकार उसे बनाने के लिए दण्ड, चक्र, मृत्तिकादि कारण समुदाय की प्राप्ति में प्रवृत्ति करेगा । यहाँ समाधि गुण का प्रकरण है। सिद्धिसुख में चित्त की एकाग्रता होना समाधि है। वैयावृत्य करने से इस एकाग्रता रूप समाधि का संरक्षण होता है, यह सिद्धान्त है। जब साधु के सिद्धिसुख में एकाग्रता नामक गुण-प्राप्ति के भाव बनते हैं तब वे गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, सन्धान, तप, पूजा और तीर्थाव्युच्छित्ति ऐसे नौ क्रमों से उत्कृष्ट आचरण करते हैं और जब इन कारणों में आचरण रूप विशिष्ट आदर किया जाता है तब वैयावृत्य करनेवाली भावना सिद्धिसुख की एकाग्रता में परिणत हो जाती है। अर्थात् वैयावृत्य करनेवाले को, शुद्ध चित्त से वैयावृत्य करने के कारण उपर्युक्त नौ गुण प्राप्त हो जाते हैं, तब उनकी वैयावृत्य करनेवाली अभ्यन्तर परिणति स्वयमेव सिद्धिसुख की एकाग्रता में परिणत हो जाती है, क्योंकि गुणपरिणामादि नौ गुण सिद्धिसुख की प्राप्ति के उपाय हैं, अत: वे आत्मा से सिद्धिसुख की एकाग्रता रूप समाधि को जोड़े बिना नहीं रहेंगे। ९१-१२. जिनाज्ञा गुण और संयम-साहाय्य गुण जिनाज्ञा पालिता सर्वा, विजित्य गुणहारिणः। कृतं संयम-साहाय्यं, कषायेन्द्रिय-वैरिणः ॥३३१ ।। अर्थ - वैयावृत्य करनेवाला साधु सर्व जिनेन्द्रदेवों की आज्ञा का पालन करता है और गुणों को नष्ट करनेवाले कषाय तथा इन्द्रिय रूपी वैरियों को जीत कर संयम-रक्षण में सहायक बनता है॥३३१ ॥ __ प्रश्न - वैयावृत्य करनेवाले को जिनेन्द्रदेवों की आज्ञा का पालक क्यों कहा जाता है? उत्तर - भगवान जिनेन्द्र की आज्ञा है कि साधुजन अवसर आने पर परस्पर वैयावृत्य करके अपने वैयावृत्य नामक अभ्यन्तर तप की वृद्धि करें और जिनकी वैयावृत्त्य का अवसर प्राप्त हुआ है उनके रत्नत्रय का संरक्षण एवं संवर्धन करें। यही कारण है कि वैयावृत्य करनेवाले को जिनाज्ञा का पालक कहा जाता है। प्रश्न - संयम-साहाय्य गुण से क्या अभिप्राय है ? उत्तर - जैसे दीपक स्वयं जलता है, स्व-पर को प्रकाशित करने के लिए उसे अन्य की आवश्यकता नहीं पड़ती, किन्तु जब वायु के झोंके आते हैं तब हाथ की आड़ देकर दूसरे जन उसके संरक्षण में सहायक होते हैं। इसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय एवं अन्य साधुजन संयम एवं तप आदि के भण्डार होते हैं किन्तु यदि कदाचित् कषायादि का उद्वेग उत्पन्न हो जाय तो वैयावृत्य करनेवाले कषाय और इन्द्रियों के दोष बताकर कषाय एवं इन्द्रियों के निग्रह में सहायक होते हैं। यदि कभी आचार्य या अन्य साधुजन व्याधि आदि से पीड़ित हो जाते हैं तथा बिना संक्लेश के रोग
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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