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________________ मरणकण्डिका- १२३ ९. तीर्थ अव्युच्छित्ति गुण सूरि-धारणया सङ्घ, सर्वो भवति धारितः । न साधुभिर्विना सङ्घो, भूरुहैरिव काननम् ।।३२८ ।। अर्थ - जैसे वृक्षों के बिना वन नहीं होता, वैसे ही साधुओं के बिना संघ नहीं होता, अतः आचार्य को धारण करने से सर्वसंघ धारण कर लिया गया है, ऐसा साझा नाहिए ॥ १२८ ॥ साधु-धारणया सङ्घः, सर्वो भवति धारितः । न साधुभिर्विना सङ्ग्रो, भूरुहैरिव काननम् ॥ ३२९ ॥ अर्थ- जैसे वृक्षों के बिना वन नहीं होता, वैसे ही साधुओं के बिना संघ नहीं होता, अतः साधु के सन्धारण से भी सर्वसंघ का संधारण हो जाता है ।। ३२९ ।। प्रश्न- आचार्य के संधारण से सर्वसंघ का संधारण कैसे हो सकता है ? उत्तर - आचार्यदेव संघ के स्तम्भ और संरक्षक होते हैं। वे शिष्यों को रत्नत्रय ग्रहण कराते हैं, जो साधु रत्नत्रय धारण कर चुके हैं, वे उन्हें उसमें दृढ़ करते हैं और उत्पन्न हुए अतिचारों को दूर कर उनका रत्नत्रय निर्मल करते हैं। आचार्य की अमृत वाणीमय उपदेश के प्रभाव से ही संघ गुणों के समूह को धारण करता है, अतः आचार्य परमेष्ठी की वैयावृत्य कर उनका संधारण करने से अर्थात् वैयावृत्य द्वारा उन्हें रत्नत्रय में स्थिर कर देने से सर्व संघ को शान्ति हो जाती है, अतः सर्वसंघ का संधारण हो जाता है और संघ का संधारण हो जाने से अभ्युदय एवं निःश्रेयस् सुख प्राप्ति के साधन स्वरूप धर्म-तीर्थ का बिच्छेद नहीं होता । अर्थात् धर्म का प्रवाह अविच्छिन्न रूप से चलता रहता है। प्रश्न- एक साधु के संधारण से सर्वसंघ का संधारण कैसे हो जायेगा ? उत्तर - आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शिक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ ऐसे दश प्रकार साधु होते हैं। साधुओं के भेद के कारण वैयावृत्य के भी दस भेद कहे गये हैं। आचार्य की वैयावृत्य का माहात्म्य श्लोक ३२८ में कहा गया है। श्लोक ३२९ में साधु के संधारण से सर्वसंघ का संधारण होना कहा गया है । यहाँ साधु शब्द से उपाध्याय, तपस्वी एवं शैक्ष आदि सभी का ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् तपस्त्री, शैक्ष आदि किसी एक का धारण करने से सर्वसंघ का संधारण हो जाता है क्योंकि साधु ही संघ है, साधु से संघ और संघ से साधु सर्वदा भिन्न नहीं होते। समुदाय और अवयव परस्पर में कथंचित् अभिन्न होते हैं, इस प्रकार संघ की या किसी एक - एक साधु की भी वैयावृत्य करने से रत्नत्रय की धारा अविच्छिन्न प्रवहमान रहती है। १०. समाधिगुण एवं गुणपरीणाम - प्रमुखैर्विविधैः परैः । प्राप्यते वर्तमानेन समाधिः सिद्धि-शर्मणा ॥ ३३० ॥ अर्थ - इस प्रकार उपर्युक्त क्रम से कहे गये गुणपरिणाम आदि नौ गुणों के द्वारा सिद्धिसुख में प्रवर्तनरूप 2
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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