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________________ मरणकण्डिका - १२२ तो सम्भवत: रत्नत्रय के पुन: जुटाने का सौभाग्य उन्हें प्राम न हो, इसीलिए सन्धान को वैयावृत्य का गुण माना ७. तपगुण वैयावृत्यं तपोऽन्तस्थं, कुर्वतानुत्तरं मुदा वेदनाश्चापदाधारा, भिद्यन्ते कर्म-भूधराः ।।३२६ ॥ ___ अर्थ - वैयावृत्य नामक अभ्यन्तर उत्कृष्ट तप को अत्यन्त हर्षपूर्वक करनेवाले साधु के कर्मरूपी पर्वत छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और रुग्ण साधु की आपत्ति की आधारभूत वेदना शान्त हो जाती है।।३२६ ॥ प्रश्न - वैयावृत्य से रोगी साधु की वेदना शमन हो जायगी, यह तो सत्य है किन्तु कर्मनिर्जरा कैसे होगी? क्योंकि निर्जरा तो उपवास आदि तप से होती है ? उत्तर - तपश्चरण से कर्मनिर्जरा होती है। बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप दो प्रकार का है। उपवास आदि बाह्य तप हैं, इनसे केवल उपवास आदि करनेवालों के कर्मों की निर्जरारूप एक ही लाभ होता है। वैयावृत्य अन्तरंग तप है। अपने कार्यों को गौण कर अर्थात् समय निकाल कर दूसरों की सेवा करना, ग्लानि जीत कर दूसरों का मल-मूत्र एवं दान आदि साप माना, रोगी साथ के गलिन पापीर की शुद्धि आदि करना, उनको शान्तिपूर्वक उठाना-बैठाना आदि कार्य हर्षपूर्वक बिना विसंवाद के कर लेना अति दुर्लभ है। इस तप से अपने कर्मों की निर्जरा तो होती ही है किन्तु साथ-साध रोगी साधु की रोगवेदना शान्त हो जाती है। इस प्रकार इस तप से स्व एवं पर के उपकार रूप दो लाभ होते हैं। ८. पूजा गुण त्रेधा विशुद्ध-चित्तेन, काल-त्रितय-वर्तिनः। सर्व-तीर्थकृतः सिद्धाः, साधवः सन्ति पूजिताः ।।३२७ ।। अर्थ - वैथावृत्य करनेवाले साधु ने वैयावृत्य करके विशुद्ध चित्त से त्रिकालवर्ती सभी तीर्थकर, सभी सिद्ध और सभी साधुओं की पूजा की है, ऐसा मैं मानता हूँ॥३२७ ।। प्रश्न - वैयावृत्य करने मात्र से तीर्थंकरों आदि की पूजा मानना कैसे सम्भव है ? उत्तर - आज्ञा का पालन करना ही यथार्थतः पूजन है। यदि आज्ञापालन न करे और पूजा, आरती आदि करते रहें तो वह पूजा, पूजा नहीं कही जाती । सर्व तीर्थंकरों ने, आचार्यों एवं साधु परमेष्ठियों ने यही आज्ञा दी है कि आप सब साधुजन यथाशक्ति वैयावृत्य तप का आचरण करो। अर्थात् रोगी, अशक्त एवं उपवास आदि तपों से श्रम को प्राप्त साधुओं की शुद्ध मन से एकाग्रतापूर्वक वैयावृत्य करो। जो साधु इस आज्ञा का पालन करते हैं वे मानों त्रिकाली तीर्थकर आदिकों की पूजा ही करते हैं। इतना ही नहीं, अपितु दश धर्मों के अन्तर्गत तप भी है और वैयावृत्य एक प्रकार का तप है, अत: वैयावृत्य करनेवाले साधु ने मानों तीर्थंकरों, सिद्धों और साधुपरमेष्ठियों की ही पूजा की है, ऐसा समझना चाहिए।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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