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________________ मरणकण्डिका - १२१ सदृश सिद्ध भगवान के भी चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं। शेष आचार्य, उपाध्याय और साधुजन उनका नाश करने के लिए उद्यमशील हैं। रत्नत्रयरूप धर्म भी कर्मों का पराभव करता है अतः उसे भी जिन कह सकते हैं। ५. पात्रलाभ गुण निः कषायो यतिर्दान्त:, पात्रभूतो गुणाकरः । महाव्रतधरो धीरो, लभते श्रुतसागरम् ॥३२४॥ अर्थ - वैयावृत्य करने वाले साधु को कषायों का निग्रह करने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला, अन्य गुणों का आकर, महाव्रती, धीर और अनेक शास्त्रों का ज्ञाता, ऐसे पात्र का लाभ होता है ।।३२४ ।। प्रश्न - इस पात्रलाभ का फल किसे प्राप्त होता है? उत्तर - जैसे पात्र अनेक वस्तुओं को रखने का आधार होता है, वैसे ही जो आत्मा अनेक गुणों को धारण करता है उसे सत्पात्र कहते हैं। ऐसे सत्पात्र की उपलब्धि के आधार दोनों हो सकते हैं। यथा-आत्मा को संतप्त करनेवाली कषायों को जिसने शमन कर लिया है, राग भाव से उत्पन्न होनेवाले दोषों को शान्त कर लिया है, हिंसादि पाँचों पापों का नवकोटि से त्याग कर महाव्रतों के द्वारा पापास्रव का मार्ग बन्द कर दिया है, जो श्रुतज्ञान रूपी रत्नों का सागर है, धैर्यशाली है और भी अनेक गुणों का भण्डार है ऐसे पात्र का लाभ वैयावृत्य करनेवाले को प्राप्त होता है। अथवा वैयावृत्य करनेवाला साधु उपर्युक्त गुणों का भण्डार है जिसकी प्राप्ति वैयावृत्य करानेवाले साधु को होती है। इस प्रकार परस्पर में दोनों को पात्रलाभ का प्रसंग प्राप्त हाते हुए भी यहाँ 'वैयावृत्य करनेवाले को पात्रलाभ होता है', यही अर्थ इष्ट है। ६. सन्धान गुण दर्शन-ज्ञान-चारित्र-सन्धानं क्रियते यतः। रत्नत्रयात्मके मार्गे, स्थाप्येते स्वपरौ ततः॥३२५ ।। अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप में सन्धान अर्थात् नियुक्त किया जाता है। यदि किसी कारण से सम्यग्दर्शन, चारित्र, तप या संयम आदि का विच्छेद हो गया हो या छिन्न हो गये हों या इनमें कोई त्रुटि हो गई हो तो वैयावृत्य के द्वारा उन्हें रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में अपनी स्वयं की आत्मा का और जिनकी वैयावृत्य कर रहे हैं उनको पुनःस्थापित किया जाता है। अर्थात् रत्नत्रय से च्युत हुए साधु को पुनः रत्नत्रय में जोड़ने का परम सौभाग्य वैयावृत्य करनेवाले को प्राप्त होता है ।।३२५ ।। प्रश्न - रत्नत्रय आत्मीक गुण हैं, ये पर के द्वारा कैसे जोड़े जा सकते हैं ? उत्तर - रत्नत्रय आत्मीक गुण हैं, इनमें स्वयं का पुरुषार्थ - कार्यकारी होता है यह सत्य है, फिर भी पर का निमित्त आवश्यक होता है। जैसे कोई साधु रोग से या उपसर्ग से या किसी परीषह से ग्रसित हो गये, इस विवशता में यदि रत्नत्रय आत्मा से छूट गया या शिथिल हो गया तो वह वैयावृत्य करनेवालों के द्वारा रोग आदि को शमन कर या उपसर्ग आदि को दूर कर पुनः स्थापित कर दिया जाता है। अर्थात् वैयावृत्य करनेवाले रोग आदि का शमन कर देते हैं जिससे वे स्वस्थ होकर पुनः रत्नत्रय से जुड़ जाते हैं। यदि वैयावृत्य न किया जाय
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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