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________________ मरणकण्डिका - ३५२ आज्ञापनी, सम्बोधनी, प्रच्छनी, प्रत्याख्यानी, याचनी, प्रज्ञापनीच्छानुलोमा, सांशयिकी, निरक्षरा चेति नवधा असत्यमृषा भाषा मन्तव्या ।। १२५२ ।। दृष्टान्त सहित लक्षण आज्ञापनी - अनुशासन के वचन अथवा आज्ञा वचनों को आज्ञापनी कहते हैं। जैसे स्वाध्याय करो, असंयम छोड़ो, इत्यादि । I सम्बोधनी - इसे आमन्त्रणी भाषा भी कहते जिस वचन से दूसरों को बुलाया जाता है वह सम्बोधनी वचन है। जैसे हे देवदत्त ! यहाँ आओ ! प्रच्छनी - प्रश्नवचनों को प्रच्छनी या संपृच्छनी या आपृच्छनी कहते हैं। जैसे क्या मैं अमुक कार्य करूँ ? आपका स्वास्थ्य कैला ? प्रत्याख्यानी - त्याग रूप भाषा को प्रत्याख्यानी कहते हैं। जैसे मैं एक मास पर्यन्त दूध का त्याग करता हूँ, इत्यादि । प्रश्न- 'मैं एक मास के लिए दूध का त्याग करता हूँ' यह भाषा तो निर्णयात्मक है, इसमें अनुभयपना कैसे सिद्ध होगा ? उत्तर - दूध त्याग की यह प्रतिज्ञा गुरु की आज्ञा के बिना की गई है। दूध त्याग करने वाले का नियम निर्णयात्मक है अत: उसके वचन में सत्यता का अंश है किन्तु त्याग की मर्यादा पूर्ण होने के पूर्व ही यदि रुग्णता आदि का लक्ष्य करके गुरु ने कहा कि 'दूध लो' तब उसका प्रत्याख्यान सर्वथा सत्य नहीं रहा और त्यागी हुई वस्तु गुरु आज्ञा से ग्रहण की है अतः दोष न होने से सर्वथा असत्य भी नहीं है। इसलिए उसका वह प्रत्याख्यान वचन अनुभय रूप है। याचनी - प्रार्थना वचनों को याचनी कहते हैं। जैसे यह पुस्तक मुझे दो, पीछी मुझे दो इत्यादि । प्रज्ञापनी - धर्मकथा को अथवा सूचनात्मक भाषा को प्रज्ञापनी कहते हैं। जैसे मैं कुछ कहूँगा या कुछ करूंगा, इत्यादि । इच्छानुलोमा - गुरुजनों के इच्छानुकूल भाषा इच्छानुलोमा है । अथवा इच्छा को प्रगट करने वाली भाषा इच्छानुलोमा है। जैसे 'मुझे भी ऐसा ही बनना चाहिए', इत्यादि । सांशयिकी - संशय रूप अथवा संदिग्ध वचन सांशयिकी हैं। जैसे यह बलाका है ? अथवा पताका ? इत्यादि । निरक्षरा अक्षर रचना रहित ध्वनि निरक्षरा-अनक्षरा भाषा है। जैसे ताली बजाना, चुटकी बजाना, मुख से चटकारा करना इत्यादि द्वीन्द्रियादिक असंज्ञिपंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों की भाषा अनक्षरात्मक ही होती है। प्रश्न- ये सभी भाषाएँ अनुभय अर्थात् असत्यमृषारूप क्यों हैं ? उत्तर - ये सब भाषाएँ न सत्य ही हैं और न असत्य ही हैं क्योंकि इन भाषाओं को सुनकर व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का बोध होता है। अर्थात् सामान्य अंश के व्यक्त होने से इन्हें असत्य भी नहीं कह सकते और विशेष अंश व्यक्त न होने से सत्य भी नहीं कह सकते। अतः इन्हें अनुभय वचन कहते हैं। जैसे- 'हे देवदत्त ! -
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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