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________________ मरणकण्डिका - ३५३ यहाँ आओ !' यह वचन सुनकर यदि देवदत्त नहीं आता तो वचन सत्य नहीं रहा और यदि बचन सुनते आ जाता है तो असत्य नहीं रहा। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिए। एषणा समिति आहारमुपधिं शय्यामुद्रमोत्पादनादिभिः । विमुक्तं गृह्णत: साधोरेषणा समितिर्मता ॥१२५३॥ अर्थ - आहार, पीछी-कमण्डलु एवं शास्त्ररूप उपकरण एवं शय्या अर्थात् वसतिका आदि को उद्गम तथा उत्पादनादि दोषों से रहित ग्रहण करने वाले साधु के एषणा समिति होती है॥१२५३ ।। प्रश्न - यहाँ आदिशब्द से और कौन-कौन दोष ग्रहण किये गये हैं और उन सबके संक्षिप्त लक्षण क्या हैं ? उत्तर - साधुजन दिन में एक बार दाता के द्वारा दिया हुआ आहार कर-पात्र में ग्रहण करते हैं। दाता द्वारा प्रदत्त ही पीछी-कमण्डलु एवं वसतिका आदि ग्रहण करते हैं। इन्हें ग्रहण करने में छियालीस प्रकार के दोष तथा आहार में इन दोषों के साथ बत्तीस प्रकार के अन्तरायों की भी सम्भावना होती है। इन छियालीस दोषों और बत्तीस अन्तरायों को टाल कर ग्रहण किया हुआ आहार आदि ही एषणा समिति की कोटि में आता है। इन दोषों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है - उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, अप्रमाण, इंगाल, धूम और कारण ये आठ प्रधान दोष आहार सम्बन्धी माने गये हैं। १. दाता के निमित्त से आहार में जो दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष हैं। २. साधु के निमित्त से आहार में जो दोष लगते हैं, वे उत्पादन दोष हैं। ३. आहार सम्बन्धी दोष एषणा दोष हैं। ४. संयोग से उत्पन्न होने वाले संयोजना दोष हैं। ५, प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है। ६. लम्पटता से आहार लेना इंगाल दोष है। ७. निन्दा करते हुए आहार लेना धूम दोष है। ८. विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है। इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४, ऐसे १६+१६+१०+४=४६ दोष हैं। यथा - १६ उद्गम दोष (१) उद्गम दोष - जो अन्न स्व, संयत, पाखंडी आदि किसी का भी उद्देश्य लेकर बनाया जाय तो उद्दिष्ट दोष लगता है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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