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________________ मरणकण्डिका- ५३६ यशस्वी सुभगः पूज्यो, विश्वास्यो धर्मतः प्रियः । सुसाध्यः सोऽन्य कार्येभ्यो, मनो निर्वृति-कारकः ।। १९५० ॥ अर्थ - मनुष्य को धर्म के माहात्म्य से ही यश प्राप्त होता है, धर्मात्मा मनुष्य सबको प्रिय लगता है, पूज्य होता है, सुन्दर होता है और सबका विश्वासपात्र होता है। यह धर्म मनोनिर्वृत्ति का कारण है, अर्थात् मन को आह्लादित करता है और अन्य जो अर्थ एवं कामादि पुरुषार्थ हैं उनसे यह धर्म-पुरुषार्थ सुसाध्य है, अर्थात्, सरल है । १९५० ॥ धर्मः सवाणि सौख्याने, प्रदाय भुवनेऽङ्गिनम् । निधत्ते शाश्वते स्थाने, निर्बाध सुख - सङ्कुले ॥१९५९ ॥ अर्थ - इस संसार में जीव को धर्म ही सभी सुखों का देने वाला है। यह धर्म, संसार के सभी सुख देकर अन्त में बाधा रहित सुखों से परिपूर्ण शाश्वत स्थान मोक्षसुख भी देता है । १९५१ ॥ धन्या ये नरा धर्म, जैनं सर्व सुखाकरम् । - निरस्त - निखिल - ग्रन्थाः, प्रपन्नाः शुद्ध-मानसाः ।।१९५२ ।। अर्थ - सम्पूर्ण बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों के त्यागी और शुद्ध मन वाले वे महापुरुष ही धन्य हैं जिन्होंने समस्त सुखों के पुंज स्वरूप जैनधर्म को प्राप्त किया है ।। १९५२ ।। ये च वीर्येन्द्रियाश्वेभ्यो, नीता विषय-कानने । धर्ममार्गं प्रपद्यन्ते, ते धन्या नर-पुङ्गवाः ।। १९५३ ।। अर्थ - जो विषय रूपी वन में इन्द्रियरूपी घोड़ों के द्वारा बलपूर्वक ले जाये जाकर कुमार्ग पर चलते हुए भी जिनेन्द्रोपदिष्ट मोक्षमार्ग रूपी धर्ममार्ग पर चलने लगते हैं वे नर-धन्य हैं ॥ १९५३ ॥ प्रश्न- इसमें किसे धन्य कहा गया है ? उत्तर - जैसे किसी दुष्ट घोड़े द्वारा भयंकर अटवी में पटक दिये जाने पर भी जो सुरक्षित, नगर के मार्ग का अन्वेषण कर उस पर चल पड़ते हैं वे पुरुष श्रेष्ठ पुरुषार्थी माने जाते हैं। वैसे ही इस उत्तम मनुष्य पर्याय को प्राप्त करके भी जो इन्द्रिय विषय रूपी घोड़े से उतर कर अर्थात् मनलुभावन विषयों के मध्य फँसकर भी जो महान् आत्माएँ उन्हें छोड़ कर जिनदीक्षा के माध्यम से रत्नत्रय धर्म की आराधना में संलग्न हो जाते हैं वे पुरुष श्रेष्ठ और धन्य कहे गये हैं, क्योंकि वे विषयों के मधुर स्वाद का आस्वादन लेकर भी उनके त्याग में समर्थ हुए हैं। अहो ! द्वेषेण रागेण, लोके क्रीडति सर्वदा । वीतरागे निरास्वादे, बोधिधर्मेऽति-दुर्लभा । १९५४ ॥ अर्थ - अहो ! इस संसार में प्रायः सभी प्राणी सर्वदा राग और द्वेष में रत होते हुए उन्हीं में क्रीड़ा कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में निःस्वाद वीतराग धर्म में प्रीति होना अति दुर्लभ है ।। १९५४ ।। तदीयं सफलं जन्म, तदीयं वृत्तमुज्वलम् । जन्म - मृत्यु - जराकारि-कर्मास्रव-निरोधकम् ।। १९५५ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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