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________________ मरणकण्डिका -५२२ संयोग-वियोग एवं शत्रु-मित्र में समता भाव रखते हैं, उत्तम क्षमादि दस धर्मों में लीन रहते हैं तथा संसाररूपी महासमुद्र में डूब जाने के भय से रात्रि में भी अल्प निद्रा लेते हैं ऐसे मुनिराज, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक एवं क्षुल्लिका के प्रति जो अनुकम्पा उत्पन्न होती है उसे धर्मानुकम्पा कहते हैं। प्रश्न - इस अनुकम्पा का क्या फल है ? उत्तर - इस अनुकम्पा से प्रेरित होकर विवेकीजन उन मुनिराजों या पात्रों के योग्य आहार-पान, औषधि तथा वसतिका आदि संयम के साधन प्रदान करते हैं, अपनी शक्ति को न छिपाकर उनके उपसर्ग और दोषों को दूर करते हैं, “हमें आज्ञा दीजिए" इस प्रकार का निवेदन कर सेवा करते हैं, मार्ग से भ्रष्ट होने वालों को सन्मार्ग दिखाते हैं, संघ का संयोग प्राप्त होने पर 'अहो ! हम विशिष्ट पुण्यशाली हैं ऐसा विचार कर प्रसन्न होते हैं। सभाओं में उनके गुणानुवाद गाते हैं, उन्हें गुरु समान सम्मान देते हैं, उनके गुणों का स्मरण करते हुए बार-बार समागम प्राप्त करने की वांछा रखते हैं, उनके आगमन की प्रतीक्षा करते हैं और दूसरों के द्वारा उनके गुणों की प्रशंसा सुनते हैं। इस प्रकार अनुकम्पा में तत्पर मनुष्य सेवा आदि कार्य स्वयं करते हैं, अन्य से कराते हैं और करते हुए की अनुमोदना कर महा सातिशय पुण्यासव करते हैं। प्रश्न - मिश्रानुकम्पा के पात्र कौन हैं ? उत्तर - जो महान् पाप के मूल हिंसादि पापों से निवृत्त हैं, सन्तोष और वैराग्य गुण सम्पन्न हैं, विनीत हैं, दिग्विरति, देशविरति एवं अनर्थदण्डविरति को धारण किये हुए हैं, तीव्र दोष वाले भोग-उपभोग का त्याग कर शेष भोगोपभोग की सामग्री का परिमाण किये हुए हैं, पापों से भयभीत रहते हैं, जो विशिष्ट देश-काल में सर्व सावद्य का त्याग करते हैं अर्थात् त्रिकाल सामायिक करते हैं और पर्व के दिनों में सर्वारम्भ का त्याग कर उपवास करते हैं उन संयमासंयमियों के प्रति जो अनुकम्पा उत्पन्न होती है वह मिश्रानुकम्पा है। इस मिश्रानुकम्पा से भी जीव पुण्यास्रव करते हैं। अथवा, मिथ्यात्व से सदोषी अन्य धर्मावलम्बी कष्टदायक तपस्या करने वाले विनयी तपस्वियों के प्रति होने वाली अनुकम्पा भी मिश्रानुकम्पा है। प्रश्न - सर्वानुकम्पा का क्या लक्षण है ? उत्तर - जो स्वभावत: मार्दव गुण से सम्पन्न हैं ऐसे सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि आदि सभी प्राणियों के प्रति उत्पन्न होने वाली अनुकम्पा सर्वानुकम्पा कही जाती है। इसके अतिरिक्त जिनके अवयव कट गये हैं, जो बाँधे गये हैं, पीटे जा रहे हैं, खोये हुए हैं, रोके हुए हैं और भूखादि से अति व्याकुल हैं, ऐसे निरपराध या अपराधी मनुष्यों को देखकर तथा मांसादि के लिए पशुओं एवं पक्षियों का वधादि होते देखकर या पशुओं आदि का परस्पर का हिंसात्मक घात-प्रतिघात देखकर, रोग से पीड़ित प्राणी को देखकर, गुरु, पुत्र, पिता, माता या स्त्री आदि के सहसावियोग से दुखी जनों को चिल्लाते हुए देखकर, अपने अंगों को शोक से पीटते हुए, अर्जित धन के नष्ट हो जाने से दीन हुए तथा धैर्य, शिल्पादि विद्या और व्यवसाय से रहित गरीबों को देखकर उनके दुख को अपना ही दुख मानकर कम्पित हो उठना अनुकम्पा है। उपकार की अपेक्षा किये बिना ही ऐसे जीवों की शान्ति का उपाय करना आवश्यक कर्तव्य है। जैसे माता पुत्र के लिए सदैव शुभ होती है, वैसे ही अनुकम्पा सभी प्राणियों के लिए शुभप्रदा है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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