SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकाण्डका - ५३१ इन्द्रियाचा नियम्यन्ते, वैराग्य-खलिनैर्देवैः। उत्पथ-प्रस्थिताः दुष्टास्तुरगाः खलिनैरिव ॥१९३० ।। अर्थ - जैसे कुमार्ग में जाने वाले दुष्ट घोड़ों को कठोर लगाम द्वारा वश में किया जाता है, वैसे ही कुगति में ले जाने वाले दुष्ट इन्द्रियरूपी घोड़ों पर वैराग्यरूपी दृढ़ लगाम द्वारा नियन्त्रण किया जाता है ।।१९३० ।। नाक्षस निगृह्यन्ते, भीषणाश्चल-मानसैः। दंदशूका इव ग्राह्या, विद्या-संवाद-वर्जितैः॥१९३१ ॥ अर्थ - जैसे विषापहार मन्त्र, विद्या एवं औषधि से रहित मनुष्य विषैले सर्प को वश में नहीं कर सकता, वैसे ही जिसका मन चंचल है वह मनुष्य इन्द्रियरूपी भयंकर सर्प को निगृहीत नहीं कर सकता ।।१९३१॥ अप्रमाद-कपाटेन, जीवे योग-निरोधनम् । क्रियते फलकेनेव, पोते जल-निरोधनम् ॥१९३२ ।। अर्थ - जैसे फलक या कपाट या लकड़ी के पटिये द्वारा नाव में आने वाला जल रोका जाता है, वैसे ही अप्रमाद रूपी कपाट या पटिये के द्वारा अशुभ परिणाम रूपी आसवों का निरोध किया जाता है। इसी निरोध को मंवर कहते हैं !!१९३२ !! प्रश्न - प्रमाद कितने और कौन-कौन से हैं तथा इनके प्रतिपक्षी अप्रमाद रूप कपाट कौन-कौन से उत्तर - प्रमाद पन्द्रह प्रकार के हैं। यथा-भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और राष्ट्रकथा रूप चार विकथायें, क्रोधादि चार कषायें, पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और स्नेह। सत्य वचन, अनुभय वचन, स्वाध्याय एवं ध्यान की एकाग्रता ये विकथा प्रमाद के प्रतिपक्षी हैं अर्थात् इनमें संलग्न रहने से विकथाओं को अवसर प्राप्त नहीं होता। क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं सन्तोष भाव क्रमश: क्रोधादि चारों कषायों के प्रतिपक्षी हैं। राग-द्वेष के कारणभूत इन्द्रियों के विषय है, अतः इन्द्रियविषयों से रहित क्षेत्र में रहना, ज्ञान के बल से मन को एकाग्र रखना, इन्द्रिय-विषयों के निमित्त राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं और रागद्वेष के कारण अन्य दोष उत्पन्न होते हैं, उन दोषों का स्मरण करना तथा विषयों की सहज उपलब्धि में भी आदर भाव न होना, ये सब इन्द्रिय नामक प्रमाद के विरोधी हैं। जैसे निर्भय योद्धा रणांगण में शत्रुओं को जीत लेता है वैसे ही सावधानता से वर्तन करने वाला विरक्त साधु इन्द्रियों को जीत लेता है। अपने खोटे आचरणों से उत्पन्न दोषों का स्मरण कर शोक करना, निद्रा के दोषों का चिन्तन, रत्नत्रय के प्रति वृद्धिंगत अनुराग, संसार से भय और अनशन, अवमौदर्य तथा रसपरित्याग रूप तप ये सब अप्रमाद निद्रा नामक प्रमाद के विरोधी हैं। ये सब बन्धु-बान्धव अस्थिर हैं, इनके निमित्त से अनेक प्रकार के आरम्भ-परिग्रह की आकुलता होती है जिससे नरकादि कुगतियों के भयंकर दुख भोगने पड़ते हैं तथा ये बन्धुगण धर्म में विघ्न उपस्थित करने वाले
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy