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________________ मरणकण्डिका -८ अर्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और समिति गुप्ति आदि चारित्र रूप रत्नत्रय की निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले एवं अपवाद रूप अर्थात् अतिचार युक्त प्रवृत्ति करने वाले साधुओं में महान् अन्तर है ।। १९ ।। प्रश्न उत्तर - समिति - गुप्ति रूप सम्यक् चारित्र, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्दर्शन अर्थात् रत्नत्रय की निर्दोष तथा सदोष प्रवृत्ति करने वाले साधुओं में जो नहार अन्तर कहा गया है उस महान् अन्तर' के दो अर्थ हो सकते हैं। यथा 1 इस 'महदन्तरं' अर्थात् महान् अन्तर के कितने अर्थ निकल सकते हैं? १. रत्नत्रय में निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले साधु मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। यहाँ तक कि उसी भव से भी मोक्ष जा सकते हैं किन्तु सदोष प्रवृत्ति करने वालों को मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। दोनों में यह महान् अन्तर है 1 २. सल्लेखना ग्रहण कर मरण काल में जो साधु क्षुधा तृषादि परीषहों से घबरा कर या परीषह आदि के भय से रत्नत्रय में बार-बार दोष लगाते हुए संक्लेश परिणाम करते हैं उनका कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर हो सकता है। अर्थात् मरते समय रत्नत्रय से च्युत होकर पुनः उतना काल व्यतीत होने के पश्चात् ही वे रत्नत्रय प्राप्त कर सकेंगे। आराधना के फल का अतिशय चारित्राराधने सिद्धाश्चिर - मिथ्यात्व - भाविताः । क्षणाद् दृष्टा यतः सूत्रे, चारित्राराधनाः ततः ॥ २० ॥ अर्थ - जो चिर अर्थात्, अनादिकाल से मिथ्यात्व से संयुक्त थे, वे भी अल्पकाल में सम्यग्दर्शन सहित चारित्र की आराधना के प्रभाव से सिद्ध-अवस्था को प्राप्त हुए हैं। इसी कारण आगम में चारित्र की आराधना को ( सारभूत ) कहा है ॥ २० ॥ प्रश्न - चारित्र की आराधना को सब आराधनाओं का सार क्यों कहा गया है? उत्तर - ." तस्मिन्नेव भवे असतामापन्नाः " भगवती आराधना गाथा १७ की टीका के इस अंश से सिद्ध होता है कि भरत चक्रवर्ती के भद्र-विवर्धन आदि ९२३ पुत्र अनादिकाल से नित्यनिगोद में मिथ्यात्व भाव से ग्रसित थे। भगवान ऋषभदेव के पादमूल में धर्म सुनकर बोध को प्राप्त हुए तथा चारित्र को धारण कर अल्पकाल में मोक्ष चले गये, इसी कारण आगम में चारित्र आराधना को सब आराधनाओं में सारभूत कहा है। ( शंका रूप गाथा) जब मरणकाल में ही आराधना का अतिशय प्राप्त हो जाता है। तब उसके पूर्व आराधनाओं का प्रयास क्यों ? मृतावाराधना-सारो, यदि प्रवचने मतः । किमिदानीं सदा यत्नश्चतुरङ्गे विधीयते ॥ २१ ॥ अर्थ- 'परणकाल में आराधना का सार प्राप्त होता है', यदि आगम में ऐसा कहा गया है तब फिर चारों प्रकार की आराधनाओं में सदा काल प्रयत्न करने की क्या आवश्यकता है? || २१ |
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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