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________________ परणकण्डिका - ९ (समाधान रूप गाथा) शंका के अनुरूप समाधान परिकर्म विधातव्यं, सर्वदाराधनार्थिना। सुसाध्याराधना तेन, भावितम्य प्रजायते ॥२२॥ अर्थ - आराधना सम्पन्न करने के इच्छुक मुनिजन को आराधना की सिद्धि के लिए आराधनाओं के सहायभूत परिकर्म अर्थात् परिकर में सर्वकाल प्रयत्नशील रहना चाहिए क्योंकि जिसने पूर्व में भली प्रकार आराधनाएँ भावित की हैं उसके मरणकाल में वे सहज सिद्ध हो जाती हैं ।।२२।। प्रश्न - परिकर्म किसे कहते हैं और यह क्यों करना चाहिए? उत्तर - सहायक सामग्री परिकर्म या परिकर है। कार्यसिद्धि के अनुकूल सहायक सामग्री जितनी अधिक शक्तिशाली होती है, कार्य उतनी ही सहजता से सम्पन्न हो जाता है अत: कार्य की सहज पूर्णता के इच्छुक जीवों को सहायभूत परिकर में सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। प्रश्न - यहाँ कौनसा कार्य सिद्ध करना है और उसके परिकर्म कौन-कौन से हैं? उत्तर - यहाँ समाधिमरण पूर्वक शरीर छोड़ने रूप कार्य सिद्ध करना है। इस कार्य की सिद्धि आराधनाओं से होती है अत: मुनिजन को समर्थ कारणस्वरूप सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में सतत उद्यमशील रहना चाहिए, जिससे मरणसमय वेदना अथवा क्षुधा-तृषादि परीषह अथवा उपसर्गादि उपस्थित हो जाने पर भी रत्नत्रय रूए धर्म अथवा गृहीत आराधनाओं से आत्मा च्युत शिथिल या विचलित न हो। प्रश्न - यहाँ 'सर्वदा' शब्द से कौनसा काल ग्रहण करना चाहिए ? उत्तर - आत्महितेच्छु भव्य जीव आराधना की सिद्धि अर्थात् समाधि-साधने हेतु ही दीक्षा ग्रहण करते हैं। अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए वे जीवनपर्यन्त प्रयत्नशील रहते हैं। दीक्षा से मरणपर्यन्त का जितना काल होता है, उसका दीक्षा काल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखनाकाल और उत्तमार्थकाल के भेद से विभाजन किया गया है। सर्वदा पद से ये छहों काल अर्थात् दीक्षा काल से जीवनपर्यन्त इन आराधनाओं की विशुद्धि हेतु उद्यमशील रहना चाहिए। साध्य की सिद्धि के लिए साधन रूप दृष्टान्त राजन्यः सर्वदा योग्यां, विदधानः परिक्रियाम् । शक्तो जित-श्रमीभूतः, समरे जायते यथा ॥२३॥ अर्थ - जैसे राजपुत्र योग्य शस्त्र-संचालन रूप युद्ध का अभ्यास सर्वदा करता रहता है, तभी वह रणांगण में जाकर विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है ।।२३।। दृष्टान्त की योजना रूप दाष्टान्त श्रामण्यं सर्वदा कुर्वन्, परिकर्म प्रजायते। अभ्यस्त-करण: साधुान-शक्तो मृतौ तथा ।।२४ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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