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________________ -- सम्पादकीय जैन साहित्य में निःसङ्गयोगिराज अमितगति योगसारप्राभृतकार अमितगति ( प्रथम ) के रूप में ख्यात हैं। थे देवसेनसूरि के शिष्य और देश के एक हैं। इनका सं. (or ना जाता है। इनकी दो पीढ़ी के बाद 'सुभाषितरत्नसन्दोह' आदि अनेक ग्रन्थों के रचयिता अमितगति (द्वितीय) हुए जिनका समय वि.सं. १०५० है: इन अमितगति ने प्रथम अमितगति को 'त्यक्तनिःशेषसङ्ग: विशेषण देकर अपने को उनसे पृथक सिद्ध किया है और अपने ग्रन्थों में इनके महान् गुणों की स्तुति की है। अमितगति द्वितीय ने अपनी 'धर्मपरीक्षा' में जो प्रशस्ति दी हैं, उससे इनकी गुरुपरम्परा पर प्रकाश पड़ता है- वीरसेन देवसेन योगसारप्राभृतकार अमितगति प्रथम नेमिषेण माधवसेन धर्मपरीक्षादिप्रणेता अमितगति (द्वितीय) । वि. सं. की १४ वीं सदी के इन आचार्य को इतिहासज्ञ पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ नं वाक्पतिराज मुज्ज की सभा के एक रत्न के रूप में स्वीकार किया है। ❤ - - निर्विवाद रूप से बहुश्रुतज्ञ आचार्यदेव अमितगति की प्रणीत रचनाएँ निम्नलिखित हैं : १. सुभाषितरत्नसन्दोह २. धर्मपरीक्षा ३. उपासकाचार (अमितगति श्रावकाचार ) ४. पञ्चसंग्रह ५ आराधना ६ भावना द्वात्रिंशतिका । इन प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त लघु एवं वृहत् सामायिक पाठ, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सार्द्धद्ववद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ भी इनके द्वारा रचित माने जाते हैं। सामायिक पाठ में १२० पद्म है। शेष चार ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। : मरणकण्डिका 'आराधना' ('मरणकण्डिका' रूप में ख्यात) शिवार्यकृत प्राकृत आराधना का संस्कृत रूपान्तर है। आचार्य अमितगति ने मंगलाचरण रूप प्रथम श्लोक में पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर चार आराधनाओं और उनका फल कहने की प्रतिज्ञा की है । अनन्तर कहा है कि आगम में विस्तारपूर्वक सत्तरह प्रकार के मरणों का वर्णन पाया जाता है, मैं केवल पाँच प्रकार के मरणों का संक्षेप से इस ग्रन्थ में वर्णन करता हूँ । सम्भवतः मरणों का वर्णन होने के कारण ही यह संस्कृत रूपान्तर 'भरणकण्डिका' के रूप में प्रसिद्धि पा गया है अन्यथा अद्यावधि प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में ग्रन्थ के प्रारम्भ में यह नाम नहीं मिलता है, अन्त में 'मरणकंडिका नक्खत्तगणनया सम्मता' ऐसा उल्लेख मिलता है। प्रशस्ति में भी भगवती आराधना (श्लोक ५), आराधना (श्लोक ६ ), भगवती (श्लोक ८) आदि का ही उल्लेख हुआ है। आचार्यदेव ने प्राकृत गाथाओं का संस्कृत रूपान्तर प्रायः अनुष्टुप् छन्द में किया है । यों ११ मात्रा से लेकर २१ मात्रा तक के २७ विविध छन्दों में भी रचना हुई है। पर इन छन्दों की संख्या अत्यल्प है। २२४० श्लोकों की विशालकाय रचना में केवल १३६ श्लोक ही अन्य छन्दों में हैं: शेष अनुष्टुप् हैं। जिन पाँच मरणों को आचार्यदेव ने अपने वर्णन का विषय बनाया है, वे हैं- बालमरण, बालबालमरण, बालपण्डितमरण, पण्डितमरण और पण्डित पण्डितमरण। व्रतरहित सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण कहते हैं, मिध्यादृष्टि के मरण को बालबालमरण कहते हैं। अणुव्रती तथा आर्थिका, क्षुल्लक आदि का बालपण्डितमरण होता है। छठे गुणस्थान से ११ वें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों का मरण पण्डितमरण कहलाता है और १४वें गुणस्थानवर्ती अर्हन्त देव का निर्वाण पण्डित पण्डितमरण है। पण्डितमरण के तीन भेद हैं: भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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