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________________ म माल भावनाम जन्म और मरण जीवन के दो ध्रुव हैं। अनादि काल से दिन और रात्रि के समान क्रम से जन्म के बाद मरण और मरण के बाद जन्म को यह आत्मा इस संसार में सतत प्राप्त करता रहता है। मोही प्राणी जन्म को अच्छा मानता है तथा मृत्यु से भयभीत रहता है जबकि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। संसारचक्र में यही तो सब कुछ होता है। जन्म और मृत्यु दोनों ही दुखद हैं अतः इन दोनों दुःखों के साथ संसार के अन्य सभी दु:खों से छूटने के लिए मृत्युंजयो पुरुषार्थ करना नितान्त अपेक्षित है। संसार में अनेक कलाएँ हैं और उन सबको सीखने-सिखाने के अनेक उपाय हैं, उसी प्रकार मरण भी एक कला है। मरण की कला से अभिप्राय है “सम्यग्दर्शन पूर्वक, व्रत-संयम-तपपूर्वक जीवन जीते हुए अन्त में रत्नत्रय दीप के तेज सहित अपने प्राणों का विसर्जन करना!" मरण की इस कला को सल्लेखना विधि कहते हैं जिसमें कषाय और शरीर को भली प्रकार आत्मविशुद्धि पूर्वक कृश किया जाता है। शिवकोटि आचार्यदेव ने भगवती आराधना' में इस सल्लेखना विधि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। मिथ्यात्तसेवन के साथ अव्रतपूर्वक तो इस जीव ने सदा ही मरण किया है, किन्तु सम्यग्दर्शन सहित सल्लेखना करने वाला प्राणी अधिक-से-अधिक सात-आठ भव तक संसार में रह सकता है, फिर तो निश्चित ही मोक्षसुख प्राप्त करता है। 'भगवती आराधना' गाथासूत्रों में रचित ग्रन्थ है। उसका प्रकाशन बहुत वर्षों पूर्व शास्त्राकार पन्नों में दो संस्कृत टीकाओं सहित 'मूलाराधना' नाम से हुआ था। उसी ग्रन्थ के गाथासूत्रों के नीचे अमितगति आचार्यदेव विरचित संस्कृत श्लोक भी प्रकाशित हैं। बस! वही संस्कृत श्लोकरूप रचना 'मरणकण्डिका' के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त ग्रन्थ है। परमपूज्य अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी आचार्यरत्न श्री अजितसागरजी महाराज ने एक कॉपी में मरणकण्डिका के श्लोकों को लिख लिया था। उन्होंने आर्यिका जिनमतीजी से उनकी हिन्दी टीका लिखवायी थी और उसका प्रकाशन भी आचार्यदेव की महती कृपा से उनके जीवनकाल में हो गया था। ईस्वी सन् १९९० में आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ने परमपूज्य आचार्यरत्न अजितसागरजी से१२ वर्षीय उत्कृष्ट सल्लेखना विधि को ग्रहण किया था। उसे सम्पन्न करने के उद्देश्य से उन्होंने इन १२ वर्षों में भगवती आराधना और मरणकण्डेिका ग्रन्थों का अधिक स्वाध्याय करते हुए अपने मन को विशुद्धतम और सुदृढ़ करने का सफलतम परम पुरुषार्थ किया था। यही पुरुषार्थ करते हुए उनके मन में भावना जगी कि इस समय प्रश्नोत्तर पद्धति से ग्रन्थ के रहस्य और सार को समझने का रिवाज चल गया है जोकि समयानुकूल है। अत: अनेक ग्रन्थों की टीकाकर्ती एवं सृजनकी विदुषी आर्यिका विशुद्धमती माताजी ने 'मरणकण्डिका' की प्रश्नोत्तरी टीका लिखना प्रारम्भ किया और सदेखना सम्पन्न होने के कुछ माह पूर्व ही उस टीका को पूर्ण भी किया। उसका प्रकाशन सम्पादन-कलामर्मज्ञ, सद्गृहस्थ डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी के सम्पादकत्व में हो रहा है। जीवन के अन्तिम क्षणों तक श्रुताराधनारत आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी ने अपनी वर्तमान पर्याय में आगमोक्त विधि से समाधिसाधना का पुरुषार्थ किया था। उनका वह पुरुषार्थ और श्रुताराधना उनके संसार की सन्निकटता का निमित्त बनेंगे, ऐसी हम मंगल भावना करते हैं। अनेक ग्रन्थों के समान ही इस ग्रन्थ का सम्पादन करने में अपने मनोयोग को लगाने वाले डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी भी अपनी इस वर्तमान पर्याय को सकल संयम धारण कर पंडितमरण रूप समाधिसाधना से संसार को अति सन्निकट करने का पुरुषार्थ करने में सक्षम हों, उनके लिए यही मंगल आशीर्वाद है। इति भद्रं भूयात्। अक्षय तृतीया, 2060 आचार्य वर्धमानसागर बावनगजा सिद्धक्षेत्र
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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