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और प्रापन ग्रन्थ में मुख्यत भक्तप्रत्याख्यान मरण का वर्णन है। इस वर्णन के चालीस अधिकार हैं, कोई छोटा है तो कोई बड़ा । अतः अधिकारों के समूह बनाकर यहाँ उन्हें बारह अधिकारों में विभक्त किया गया है। विषयानुक्रमणिका से यह विस्तृत जानकारी मिल जाती है। इंगिनी और प्रायोपगमन का वर्णन कुल ६६ श्लोकों में है। प्रसंगवश जैनधर्म के प्रायः सभी प्रमेय इसमें समाविष्ट हैं।
अंत में, बालपण्डितमरण के वर्णन के १० श्लोक हैं और पण्डित पण्डितमरण के ६५ श्लोक । सिद्धों के सुख का सुन्दर वर्णन आचार्यदेव ने किया है।
ग्रन्थसमाप्ति के बाद ३२ श्लोकों में आराधना स्तवन है और प्राकृत गद्य में नक्खत्तत्रणणा आचार्यदेव ने प्रशस्ति के भी सुन्दर ८ श्लोक लिखे हैं।
प्रस्तुत संस्करण: शिवकोटि आचार्यप्रणीत मूलाराधना अपरनाम भगवती आराधना पूर्व प्रकाशित ग्रन्थ है जिसमें प्राकृत भाषाबद्ध २२७९ गाथाएँ हैं। पूज्य माताजी ने जिस प्रति को आधार बनाया है वह प्रति नवम्बर, १९३५ में श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र गजपंथाजी कार्यालय म्हसरूल जिला नासिक से श्री श्री १०८ श्री देवेन्द्रकीर्ति ग्रन्थमाला के दूसरे में प्रकाशित है। प्रस्तावना और अनुक्रम के १७ पृष्ठों के अतिरिक्त मूल ग्रन्थ के १८७८ पृष्ठ हैं। प्रकाशन का क्रम इस प्रकार है- पहले मूल प्राकृत गाथा ( आ. शिवकोटि), फिर अमितगति आचार्य का समानार्थक संस्कृत श्लोक, फिर अपराजितसूरि की संस्कृत विजयोदया टीका, अनन्तर आशाधरजी की मूलाराधनादर्पण पंजिका, फिर शिवजीलाल की भावार्थदीपिका टीका और अनन्तर पं. जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले कृत हिन्दी अनुवाद। इसके अतिरिक्त भी अन्य मुद्रित संस्करण संस्कृत टीकाओं से रहित भी और सहित भी उपलब्ध हैं। परन्तु अमितगति आचार्य कृत समानार्थक संस्कृत श्लोकों का 'मरणकण्डिका' के रूप में स्वतंत्र प्रकाशन पहली बार सन् १९८९ में पूज्य आचार्य अजितसागर जी महाराज की प्रेरणा से आर्यिका जिनमतीजी कृत हिन्दी अनुवाद सहित हुआ। तब से इसके स्वतंत्रस्वाध्याय का क्रम भी चल निकला ।
पूज्य आर्यिका विशुद्धमती माताजी ने अपनी बारह वर्ष की सल्लेखना अवधि में अपने मार्गदर्शन हेतु इस ग्रन्थ का स्वाध्याय किया और उनकी भावना इसके श्लोकों के भावों को प्रश्नोत्तर रूप में विशद करने की बनी। इसी भावना स्वरूप मरणकण्डिका के इस संस्करण का उद्भव हुआ। 'अन्तर्ध्वनि' में उन्होंने लिखा है, " इस ग्रन्थ के लेखनकार्य से मुझे अत्यधिक सम्बल मिला। अनेक बार तो ऐसा अनुभव हुआ कि परमपूज्य निर्यापकाचार्य गुरु समक्ष बैठकर ही मानों मागर्दशन कर रहे हैं। शास्त्र - लेखन का जो यथार्थ मूल्य है, वह तो मुझे लेखनकार्य करते समय ही अनेक बार प्राप्त हो चुका है क्योंकि परिणामों की निर्मलता और कर्त्तव्यनिष्ठा की जो अनुभूति उस समय हुई वह अमूल्य तथा वचनातीत है।'
पूज्य माताजी ने ग्रन्थ के संस्कृत श्लोकों का अर्थ भी लिखा है, फिर प्रत्येक श्लोक में उल्लिखित विषय पर उत्पन्न होने वाली जिज्ञासा का प्रश्नोत्तर शैली के माध्यम से समाधान किया है। ऐसा करते हुए उन्होंने लाक्षणिक पारिभाषिक शब्दावली को तो परिभाषित किया ही है, साथ ही प्रसंगवश अधुना प्रचलित जैन आचार-विचार की भी सहजभाव से समीक्षा की है। व्याख्या और प्रश्नोत्तर के साथ ही प्रत्येक श्लोक को एक शीर्षक भी दिया है जो विषय की सूचना देने में सक्षम है।
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