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________________ मरणकण्डिका - ८९ पर्यङ्कमर्धपर्यङ्क-वीर - पद्म - गवासनम् । आसनं हस्तिशुण्डं च, गोदोह - मकराननम् ।।२३१ ।। समस्फिगमसमस्फिक्कं, कृत्यं कुक्कुटासनम् । बहुधेत्यासनं साधोः, कायक्लेश- विधायिनः ॥ २३२ ॥ अर्थ - (कायोत्सर्ग मुद्रा में अर्थात् खड़े होकर कायक्लेशतप करना ।) चिकने स्तम्भ या दीवाल आदि का सहारा लेकर खड़े होना 'सावष्टंभ' है, पूर्व स्थान से जाकर दूसरे स्थान पर कुछ काल का प्रमाण कर खड़े रहना, यह 'संक्रमण' है, अपने स्थान पर ही निश्चल खड़े रहना यह 'असंक्रमण' है, गृद्ध पक्षी जैसे दोनों पंख hair कर उड़ता है वैसे ही दोनों बाहु फैला कर खड़े होना 'गृद्धोड्डीनमवस्थान' है, भूमि पर दोनों पैर समान रखकर खड़े होना यह 'समपाद' है, और एक पैर से खड़े होना यह 'एकपाद' है। इस प्रकार खड्गासन मुद्राओं का कायक्लेश तप है ।। २३० ॥ दोनों पैरों को गोद में लेकर मूर्तिवत् बैठना 'पर्यंकासन' है, एक पैर गोद में रखकर बैठना 'अर्धपथकासन' है, पर्यंकासन को ही पद्मासन कहते हैं, दोनों जंघाएँ दूर अन्तर पर स्थापन कर बैठना वीरासन हैं, दोनों पैर पीछे मोड़ कर गाय सदृश बैठना 'गवामन' है। हाथी जैसे अपनी सुंड फैलाता है वैसे ही एक हाथ अथवा एक पैर फैलाकर बैठना ‘हस्तिशुण्डासन' है, गाय का दूध निकालते समय जैसे बैठते हैं वैसे बैठना 'गोदुहासन' है, मगर के मुख सदृश पैरों की आकृति बनाकर बैठना 'मकरासन' है, जंघा और कटिभाग को समान कर बैठना 'समस्फिगासन' है, जंघा और कटिभाग को विषम कर बैठना 'असमस्फिगासन' है। मुर्गे सदृश आकृति बनाकर बैठना 'कुक्कुटासन' है। इन अनेक प्रकार के आसनों से बैठकर ध्यान करते समय साधु के शरीर को कुछ-नकुछ कष्ट अवश्य होता है अतः इसे कायक्लेश तप कहते हैं ।। २३१-२३२ ॥ शयन मुद्रा रूप कायक्लेश तप कोदण्ड - लगुडादण्ड - शत्रशय्या-पुरस्सरम् | कर्तव्या बहुधा शय्या, शरीरक्लेश - कारिणा ॥ २३३ ॥ अर्थ- धनुषवत् सोकर ध्यान करना 'कोदण्ड शयन' है, डण्डे के सदृश शरीर को लम्बा कर सोना 'लगुड दण्ड' है एवं मुर्दे के समान ऊपर मुख करके चित सोना 'शवशय्या' है। इसी प्रकार अन्य अन्य प्रकार से सोकर ध्यान करना साधु का कर्तव्य है । यह कायक्लेशकारी कायक्लेश तप है || २३३ ॥ काष्ठाश्म - तृण-भू-शय्या, दिवानिद्रा विपर्ययः । दुर्धराभ्रावकाशादि-योग- त्रितय-धारणम् ॥ २३४ ॥ अर्थ- काष्ठ पर, पाषाण पर, तृण या चटाई आदि पर तथा भूमि पर शयन करना, दिन में नहीं सोना और अभ्रावकाश आदि तीनों योगों को धारण करना भी कायक्लेश तप है ।। २३४ ॥ प्रश्न- अभ्रावकाशादि तीनों योगों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - शीत ऋतु में खुले मैदान अथवा नदी किनारे आदि शीतप्रद स्थानों पर दिन, मास या चार मास
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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