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________________ मरणकण्डिका - ९० पर्यन्त ध्यानस्थित एक ही मुद्रा में अवस्थित रहना अवकास कग है, ग्रीष्म ऋतु में पर्वत पर इसी प्रकार ध्यान करना ग्रीष्मावकाश आतापन योग है और वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे स्थित होकर ध्यान करना वृक्षमूल योग है। तीनों या दो या एक योग के क्लेशों को शान्त भाव से एवं सोत्साह स्वेच्छा पूर्वक सहन करना कायक्लेश तप दन्तधावन-कण्डूति, स्नान-निष्ठीवनासनम्। यामिनी-जागरो लोचः, कायक्लेशोयमीरितः ॥२३५॥ अर्थ - दाँत नहीं धोना, खुजलाना नहीं, स्नान नहीं करना, थूकना नहीं, रात्रि में भी सोना नहीं और केशलोंच करना, ये सब कायक्लेश तप हैं ।।२३५॥ कायक्लेश तप का फल सूत्रानुसारतः साधोः, कायक्लेश वितन्यतः । चिन्तिता: सम्पदः सर्वाः, सम्पद्यन्ते कर-स्थिताः ।।२३६॥ अर्थ - जो साधु जिनागमानुसार कायक्लेश तप करते हैं उनके सम्पूर्ण चिन्तित सम्पदाएँ हस्तगत हो जाती हैं।।२३६ ॥ विविक्त शय्यासन तप विविक्त वसति: सास्ति, यस्यां रूप-रसादिभिः। सम्पद्यते न संक्लेशो, न ध्यानाध्ययने क्षतिः॥२३७ ॥ अर्थ - जिस वसतिका में रूप, रस, स्पर्श आदि से संक्लेश नहीं होता और ध्यान-अध्ययन में क्षति नहीं होती वह वसतिका विविक्त कहलाती है ।।२३७॥ ___ वसतिका इस प्रकार होनी चाहिए अन्तर्बहिषां शय्यां, विकटां विषमां समाम्। वाञ्छत्य-विकदां सेव्यां, रामाषण्ढ-पशूज्झिताम् ।।२३८ ॥ उद्गमोत्पादना बल्भा, दोषमुक्तामपक्रियाम् । अविविक्त-जनागम्यां गृहशय्या-विवर्जिताम् ॥२३९॥ अर्थ - वसतिका ग्राम के बाहर हो या भीतर हो, उसकी भूमि सम हो या ऊँची-नीची हो तथा खुले द्वार बाली हो या बन्द द्वार वाली हो किन्तु स्त्री, नपुंसक और पशुओं से रहित हो; उद्गम, उत्पादन एवं एषणादि दोषों से मुक्त हो, सम्मार्जन आदि क्रियाविहीन हो, अविविक्त मनुष्यों के अगम्य हो और गृहस्थों के संसर्ग से रहित हो। साधु की वसतिका इस प्रकार होनी चाहिए ॥२३८-२३९ ।। विविक्त वसतिकाओं के नाम शून्यवेश्म शिलावेश्म, तरुमूल-गुहादयः। विविक्ता भाषिताः शय्या, स्वाध्याय-ध्यान-वर्धिकाः ॥२४०॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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