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________________ मरणकण्डिका ३०० हो सकता है, स्त्रियों को नहीं, अतः जिनेन्द्र के लघु नन्दनों अर्थात् आचार्यों को ही मूल ग्रन्थ लिखने का अधिकार है, क्योंकि वे ही जीवन पर्यन्त के लिए नौ कोटी से सत्य महाव्रत पालन की एवं सत्य महाव्रत के बाधक स्वरूप हिंसा आदि पापों को नौ कोटी से त्यागने में समर्थ होते हैं। ब्रह्मचर्यव्रत के वर्णन में प्रधानतया स्त्री सम्बन्धी दोषों का सविस्तर वर्णन करने के तीन हेतु और हैं। यथा प्रथम हेतु मुक्ति की प्राप्ति पुरुष को ही हो सकती है अतः मोक्षमार्ग पर पुरुष ही निर्बाध गति से गमन करने में सक्षम है। स्त्रियाँ भी मोक्षमार्ग पर चलती हैं किन्तु उनकी पर्यायजन्य विवशता के कारण वे परिग्रह का सर्वथा त्याग नहीं कर पात अतः उनका गन्तव्य पर्यन्त निर्बाध गमन नहीं हो पाता। जो मार्ग पर तो चले किन्तु उसे पूर्ण करने में असमर्थ हो, उसे उस मार्ग सम्बन्धी कथन में मुख्यता कैसे प्राप्त हो सकती है ? दूसरा हेतु - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की पराकाष्ठा का स्पर्श पुरुष ही पूर्ण रूप से करने में सक्षम होते हैं अतः वे ग्रन्थों की रचना में चरित्रनायक के स्थानीय होते हैं और शास्त्ररचना की नीत्यनुसार चरित्रनायक के दोषों का विस्तृत वर्णन किया नहीं जाता है। अतः पुरुषों के अधिक दोष नहीं कहे जाते । - तीसरा हेतु - जो व्यक्ति प्रारम्भ किये हुए कार्य को अन्त- पर्यन्त पूर्ण कर सके उसी को उस कार्य सम्बन्धी उपदेश मुख्य रूप से दिया जाता है। लौकिक पद्धति भी यही है। प्रश्न- इतने अधिक दोष कहने का क्या हेतु है ? उत्तर- "अङ्गारसदृशी नारी, नरः घृतोपमो मतः” इस नीत्यनुसार स्त्री-पुरुष दोनों का परस्पर चुम्बक और सुई के सदृश आकर्षण बनता है। आकर्षण उत्पन्न होते ही परस्पर स्मितहास्य पूर्वक वार्तालाप, बार-बार सम्पर्क करना, कटाक्ष आदि फेंकना, इन क्रियाओं से अनुराग वृद्धिंगत होता जाता है, तब घृत के सदृश पुरुष का हृदय पिघल जाता है जिससे सर्व अनर्थ सम्पन्न हो जाते हैं। आचार्यों ने परस्पर का अनुराग तोड़ने का एक ही अचूक उपाय दर्शाया है कि “जब किसी भी वस्तु से अनुराग तोड़ना हो तब उस वस्तु के दुर्गुण देखना और उन्हीं का चिन्तन प्रारम्भ कर देना, इससे अनुराग टूट जाएगा"। यहाँ आचार्यदेव का यह अभिप्राय है कि मुनिमुद्रा शतेन्द्र बन्दनीय हैं, इस मुद्रा को धारण कर स्त्रियों के प्रति अनुराग उत्पन्न न हो और यदि उत्पन्न हो गया है तो शीघ्र ही नष्ट हो जावे, अतः स्त्री सम्बन्धी दोषों का सविस्तार वर्णन किया गया है। कल्याणेच्छु जीवों का यह कर्तव्य है कि वे शास्त्र के हार्द को समझें, किसी विवाद में न पड़ें। तात्त्विक . दृष्टि अपना कर स्त्री और पुरुष दोनों को अपने ब्रह्मचर्य व्रत का निर्दोष रीत्या पालन कर आत्मोत्थान करना चाहिए। में दृढ़ इस प्रकार स्त्रीदोष कथन प्रकरण समाप्त हुआ । मुनिजन को विरक्ति उत्पन्न कराने हेतु स्त्रियों के दोषों का सविस्तार कथन किया गया। अब उन्हें वैराभ्य करने हेतु शरीर सम्बन्धी दोषों का प्रतिपादन किया जा रहा है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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