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________________ मरणकण्डिका - ३४३ अर्थ - संसार के हेतुभूत. प्रतिबन्ध, प्रतिकार, प्रतिकर्म एवं भयादि सर्वदोष निर्गन्ध साधु को स्पर्श नहीं कर पाते। अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु इन दोषों से रहित होते हैं ।।१२३४॥ प्रश्न - प्रतिबन्ध, प्रतिकार, प्रतिकर्म एवं भयादि दोषों के क्या लक्षण हैं ? उत्तर - आने-जाने में रुकावट होना, अर्थात् पराधीन होना प्रतिबन्ध है। कषाय के वशीभूत हो किसी से बदला लेना, या उससे कोई बदला ले वह प्रतिकार है और "यह कार्य तो पहले कर लिया है, इसको अब पीछे करूँगा" ऐसे विचार को प्रतिकर्म कहते हैं तथा "मेरा धन कोई चुरा लेगा" यह भय है। ऐसे अनेक दोष और भी हैं जो परिग्रही मन में सदा विद्यमान रहते हैं किन्तु परिग्रहत्यागी इन दोषों से सदा अलिप्त रहते हैं। परिगृहत्याग से महान सुख होता है महाश्रमकरे भारे, रभसाद् भारवानिव । निरस्ते सकले ग्रन्थे, निर्वृतो जायते यतिः ।।१२३५॥ अर्थ - जैसे भार से लदा हुआ मनुष्य महाश्रम के कारणभूत भार को उतार कर सुखी हो जाता है, वैसे ही सकल परिग्रह का त्याग कर देने पर साधु भी निर्वृत्त अर्थात् शान्त और सुखी हो जाता है ॥१२३५ ।। प्रश्न - सुख का क्या लक्षण है ? उत्तर - बाधा का अभाव ही सुख का लक्षण है। जैसे लोक में भी भोजन-पान के द्वारा भूख-प्यास की बाधा का शमन हो जाने से जो स्वस्थता उत्पन्न होती है उसी को सुख कहा जाता है। भवन्तो भाविनो भूता, ये भवन्ति परिग्रहाः। जहाहि सर्वथा तांस्त्वं, कृत-कारित-मोदितैः॥१२३६ ॥ अर्थ - (निर्यापकाचार्य क्षपक को उपदेश दे रहे हैं कि देखो ! परिग्रह रखने से दोनों लोकों में बहुत दोष होते हैं अतः) तुम वर्तमान में जो परिग्रह है, जो भूत में था और भविष्य में होगा उस सबका मन, वचन, काय एवं कृत-कारित और अनुमोदना से सर्वथा त्याग कर दो॥१२३६ ।। प्रश्न - वर्तमान में विद्यमान परिग्रह दोष का अर्थात् कर्मबन्ध का कारण है, किन्तु अतीत एवं अनागत का परिग्रह कर्मबन्ध का कारण कैसे हो सकता है जिससे उसका त्याग कराया जा रहा है? उत्तर - अतीतगत परिग्रह नष्ट हो जाने से या उसका वियोग हो जाने से यद्यपि उसके साथ जो स्वामी सम्बन्ध था वह जाता रहा है फिर भी 'अमुक वस्तु मेरी थी' या मेरे पास थी, या अमुक ने चुरा ली या तोड़ दी थी, इत्यादि रूप से उसका स्मरण होना, उसमें अनुराग होना, ये सब अशुभ परिणाम हैं अतः यही कर्मबन्ध के कारण हैं, अतः गत वस्तु का स्मरण मत करो और तज्जन्य अनुराग मत करो। इसी प्रकार 'आगामी काल में मेरे पास अमुक धन होगा' ऐसा चिन्तन भी मत करो क्योंकि यह भी कर्मबन्ध का कारण है। यावन्तः केचन ग्रन्थाः, सम्भवन्ति विराधकाः। निर्वृत्तः सर्वथा तेभ्यः, शरीरं मुञ्च निःस्पृहः ॥१२३७॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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