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________________ मरणकण्डिका - ३४२ भी जाय तो उसके स्वामी को खोजने में कष्ट होता है, स्वामी भी मिल जाय तो उससे याचना करनी पड़ती है। याचना करने पर वस्तु मिल जाय तो सन्तोष और आह्लाद होता है, न मिलने पर दीनता के भाव बनते हैं, मिल जाने पर उसे यथास्थान ले जाने में, संस्कार करने में, पश्चात् उसकी रक्षा करने में अनेक कष्ट झेलने पड़ते हैं। रक्षा करते हुए भी यदि वह वस्तु कहीं चली गयी या कोई ले गया, तो भी नाना प्रकार की चिन्ता होती है कि वह मेरी अभिलषित वस्तु कहाँ गई ? कहाँ मिलेगी ? यहाँ कौन-कौन आया था ? कौन ले गया ? इस व्याकुलता में विवेकहीन होता हुआ कभी-कभी पूज्य एवं सज्जन पुरुषों पर भी सन्देह कर बैठता है, इतना ही नहीं उनसे पूछ भी लेता है कि मेरी वस्तु आप ने उठाई है क्या ? इत्यादि अध्यवसान “आदि' शब्द से ग्रहण हो जाते हैं। ये सब परेशानियाँ निष्परिग्रही के नहीं होती, अतः चित्त में किसी प्रकार की व्याकुलता न होने से निर्ग्रन्थ साधु के शास्त्र-स्वाध्याय और ध्यान निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं। सब तपों में स्वाध्याय तथा ध्यान प्रधान तप हैं और इन तपों की सिद्धि का उपाय परिग्रहत्याग है। दर्शितास्ति मनःशुद्धिः, सङ्ग-त्यागेन तात्विकी। सङ्गासक्तमना जातु, सङ्ग-त्यागं करोति किम् ।।१२३१॥ अर्थ - परिग्रह के त्याग से मन की तात्विकी अर्थात् यथार्थ शुद्धि प्रगट होती है, क्योंकि जिसका मन परिग्रह में आसक्त रहता है वह परिग्रह त्याग करने का कभी विचार भी कर सकता है क्या ? नहीं कर सकता।।१२३१॥ निःसङ्गे जायते व्यक्तं, कषायाणां तनू-कृतिः। कषायो दीप्यते सङ्गैरिन्धनैरिव पावकः॥१२३२ ।। अर्थ - जैसे लकड़ी आदि ईंधन डालने से अग्नि वृद्धिंगत होती है वैसे ही परिग्रहों से कषाय वृद्धिंगत होती है, अतः परिग्रही की कषायें तीव्र होती हैं और परिग्रह-रहित नि:संग मुनि में कषायों की कृशता व्यक्त होती है ॥१२३२॥ लघुः सर्वत्र निःसङ्गो, रूपं विश्वास-कारणम्। गुरुः सर्वत्र सग्रन्थः, शङ्कनीयश्च जायते ।।१२३३ ।। अर्थ - अपरिग्रही मुनि आने-जाने में सर्वत्र लघु/हल्का या भार-रहित होता है और परिग्रही परिग्रह के भार से भारी एवं परिग्रह के रक्षणादि की चिन्ता से सदा चिन्तित रहता है। निर्ग्रन्थ साधु का नग्न दिगम्बर रूप विश्वासकारी होता है और परिग्रहधारी को देख कर लोग शंका करते हैं कि यह वस्त्रों में कुछ शस्त्र छिपाकर लाचा है ? कुछ उपद्रव करेगा ? या हमारा धन वस्त्रों में छिपाकर ले जायेगा ? ||१२३३॥ प्रतिबन्ध-प्रतीकार-प्रतिकर्म-भयादयः। निर्ग्रन्थस्य न जायन्ते, दोषाः संसार-हेतवः ॥१२३४ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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