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________________ मरणकण्डिका - ३१७ ही लगा रहता था। किसी दिन माता आदि कुटुंबीके द्वारा किये गये उपायसे वह वसंतसेना वेश्या पर मोहित होकर उसीके यहाँ रहने लगा। घरका सब धन बरबाद हुआ। परिवारको बहुत पश्चाताप हुआ लेकिन अब क्या हो सकता था? जब चारुदत्त को धनरहित देखा तब वसंतसेनाकी माताने कपटसे उसे घरसे बाहर निकाल दिया। चारुदत्त अत्यंत लज्जित एवं दु:खी होकर धनोपार्जनके लिये विदेशयात्रा करता है। धन संग्रहकर जहाज द्वारा जैसे ही वापिस लौटता है कि जहाज तूफान द्वारा डूब जाता है। पुनः अनेक कष्टोंका सामना करते हुए धन कमाता है किन्तु दुर्दैववश फिर जहाज डूबता है ऐसा सात बार होता है किन्तु आयुके प्रबल होनेसे सातों बार लकड़ी के सहारे किनारे लगता है। इसी बीच में एक ठग संन्यासी द्वारा अंधकूपमें गिराया जाता है। वहाँ कूपमें उसीके समान धोखेसे पहुँचे हुए मरणासन्न पुरुषको णमोकार मंत्र सुनाकर समाधि कराता है जिससे वह देव बनता है। वहांसे किसी उपायसे निकल आता है। परिवारके रुद्रदत्त नामके व्यक्तिसे भेंट होती है उसके साथ द्वीपांतर जानेका विचार होता है। दुष्ट रुद्रदत्त बकरे को मारकर उसकी खालको उल्टीकर उसमें बैठकर पक्षी द्वारा रत्नद्वीपमें जानेका उपाय बताता है। चारुदत्तके मना करते हुए भी उसके सो जानेके बाद रुद्रदत्त बकरे को मारता है, चारुदत्तकी नींद खुलती है, उसने मरते हुए बकरेको णमोकार मंत्र सुनाया। द्वीपांतरमें चारुदत्त पहुंचा। पापी रुद्रदत्त बीचमें मर गया। उक्त द्वीपमें चारुदत्तको महामुनिके दर्शन होते हैं। वहाँसे विद्याधरकी सहायतासे वह अपने चंपापुर में सुरक्षित पहुँच जाता है। इसप्रकार कुशीलकी संगतिसे चारुदत्तने महान् कष्ट भोगे। तरुणस्यापि वैराग्य, शील-वृद्धेन जायते। क्रियते प्रस्तुत-क्षीरा, वत्स-स्पर्शेन गौ न किम् ॥११३५ ।। अर्थ - वय, ज्ञान एवं तप से वृद्ध पुरुषों की संगति तरुण-पुरुषों में भी वैराग्य उत्पन्न कर देती है। क्या बछड़े के स्पर्श से गाय के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं हो जाता? ॥११३५ ।। यः करोति गुरु-भाषितं मुदा, संश्रये वसति वृद्ध-सङ्कले। मुञ्चते तरुणलोक-सङ्गति, ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति ॥११३६ ॥ अर्थ - जो गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता है; वय, ज्ञान, शील एवं तप से वृद्ध पुरुषों के निवासस्थान में रहता है तथा तरुण जनों की संगति छोड़ देता है, वही ब्रह्मचर्यव्रत की निर्मलतापूर्वक रक्षा कर सकता है॥११३६॥ रजो धुनीते हृदयं पुनीते, तनोति सत्वं विधुनोति कोपम्। मानेन पूतं विनयं नयन्ति, किं वृद्ध-सेवा न करोत्यभीष्टम् ॥११३७ ॥ इति वृद्ध-सङ्गतिः॥ अर्थ - यह वृद्धसेवा पाप को नष्ट करती है, हृदय को पवित्र करती है, शक्ति को वृद्धिंगत करती है, क्रोध का नाश करती है, मान से रहित करती है और विनय से युक्त करती है। इस प्रकार यह वृद्ध सेवा किस अभीष्ट सिद्धि को प्रदान नहीं करती ? सभी इष्टफलों को देती है ।।११३७ ।। इस प्रकार वृद्धसेवा वर्णन समाप्त।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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