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________________ मरणकण्डिका - ३१६ उत्तर - पूर्वकाल की सर्व व्यवस्था धर्मसापेक्ष एवं न्याय-नीति पूर्ण थी। बचपन से ही बालकबालिकाएं अपने माता-पिता, गुरुजन एवं अन्य भी महापुरुषों को शील एवं धर्म नीति में दृढ़ देखकर उसी का अनुकरण करते थे। रात्रि में घर-घर शील कथा एवं दर्शन कथा का वाचन होता था। शिक्षा धर्मसापेक्ष थी। नारियों की तथा बालिकाओं की सम्पूर्ण व्यवस्थाएँ न्याय-नीति पूर्ण थीं, उनके कार्यक्षेत्र पुरुषों से भिन्न थे, अत: शीलधर्म का उत्कर्ष था, जिसके प्रभार से उनके दोनों भव सुधरते थे तथा महान् कीर्ति फैलती थी। सुदर्शन सेठ, जयकुमार, सीता, अंजना, चन्दना, सोमा तथा अनन्तमती आदि की शील-कीर्ति अद्यावधि इस देश के आकाशप्रदेशों में यथावत् व्याप्त है। किन्तु अब टी.वी. अर्थात् दूरदर्शन के कुत्सित धारावाही दर्शन ने उस कीर्ति को जड़-मूल से विलुप्त कर दिया है। आज के नर-नारियों को उनकी कथाएँ काल्पनिक लगती हैं। टी. वी. के पूर्व इस देश में जोर-शोर से सिनेमा का प्रचलन हुआ था, जिसमें कुशील वृद्धि के तीनों साधन, अर्थात् एकान्त, अन्धकार और सामने के चित्रपट पर रतिक्रीड़ा के अश्लील दृश्य एक साथ उपलब्ध कराये जाते थे। फिर भी उसके देखने का समय निर्धारित था। अश्लील दृश्य देखने की असीम-अभिलाषा ने ही टी. वी. को जन्म दिया। अहर्निश इन्हीं दृश्यों को देखना, कॉलेजों आदि में धर्मनिरपेक्ष वह भी एक साथ की शिक्षा, अर्धार्जन भी एक साथ मिलकर करना तथा लज्जा, मर्यादा, न्याय, सदाचार एवं नीति को अपने-अपने घरों से निष्कासित कर देना ; उसी का प्रभाव है कि आज देश एवं समाज में सर्वत्र कुशील का ही साम्राज्य है। इसका कुफल स्वास्थ्य हानि, धन हानि, गुप्त रोगों की वृद्धि, स्वच्छन्द वृत्ति, कदाचरण, वर्ण व्यवस्था का लोप तथा भावावेश में लड़कियों का जिस किसी भी यार-दोस्त के साथ भाग जाने से समीचीन विवाह व्यवस्था पर आघात आदि हमारे सामने हैं। इन वृत्तियों से जीवों के दोनों भव बिगड़ रहे हैं अतः जिन्हें नपुंसक पर्याय में तथा नरकादि दुर्गतियों में जाने का भय है उन्हें पूर्वाचार्यों के आदेशानुसार अपने शीलधर्म को दृढ़ रखते हुए सदाचार का पालन करना चाहिए। यही सुख का मार्ग है। निसर्गः मोहित-स्वान्तो, दृष्ट्वा श्रुत्वाभिलष्यति। विषयं सेवितुं जीवो, मदिरामिव-मद्यपः ।।११३३ ।। अर्थ - जैसे मद्यपी किसी को मदिरा पीते देखकर या सुनकर मद्य पीने की अभिलाषा से आतुर हो जाता है, वैसे ही निसर्गत: मोह से मोहित हृदय वाले मनुष्य रतिक्रीड़ा को देखकर या उसकी वार्ता को रसास्वादन पूर्वक सुनकर कामसेवन की अभिलाषा से द्रवित हो जाते हैं ।।११३३ ।। चारुदत्तो विनीतोऽपि, जात: संसर्ग-दोषतः। वेश्या-मांस-सुरासक्तः, कुल-दूषण-कारकः ।।११३४ ।। अर्थ - विनयवान भी चारुदत्त सेठ अपने व्यसनी चाचा के संगति-दोष से वेश्या, मांस एवं मदिरापानादि में आसक्त हुआ और अपने कुल का दूषक हुआ ।।११३४॥ * चारुदत्त सेठ की कथा * चंपापुरीमें भानुदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नी सुभद्रासे चारुदत्त नामका गुणी पुत्र हुआ। कुमार कालसे विद्याका अधिक प्रेमी होनेसे विवाह होनेपर भी स्त्री संपर्कसे दूर रहकर सदा विद्याभ्यास कला आदिमें
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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