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________________ मरणकण्डिका - ४४९ दे। अभय की बात सुनते ही कोढ़ी रूपधारी विद्युच्चर बोला-महाराज ! मैं आभीर प्रान्त के अन्तर्गत वेगातट शहर के राजा जितशत्रु और रानी जयावती का विद्युच्चर नाम का पुत्र हूँ और यह यमदण्ड उसी राजाके यमपाश कोतवाल का पुत्र है। मैंने बचपन में विनोद के लिए चौर्यशास्त्र का अध्ययन किया था और अपने मित्र यमदण्ड से कहा था कि जहाँ आप कोतवाली करेंगे, वहीं मैं चोरी करूंगा। हम दोनों के पिता अपना-अपना कार्यभार हम लोगों को सौंपकर दीक्षित हो गये। मेरे भय से यमदंड यहाँ भाग आया और अपनी बचपन की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के उद्देश्य से मैंने भी यहाँ आकर चोरी का कार्य प्रारम्भ कर दिया। विधुच्चर की बात सुनकर राजा वामरथ बड़ा प्रसन्न हुआ। विद्युच्चर अपने मित्र यमदण्ड को लेकर अपने नगर चला गया। किन्तु इस घटना से उसे वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। संघ सहित विहार करते हुए विधुच्चर मुनिराज ताम्रलिप्तपुरी की ओर आये। संघ सहित नगरमें प्रवेश करने को थे कि वहाँ की चामुण्डा देवी ने कहा"हे साधो ! अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। आप भीतर मत जाइये।" इसप्रकार रोके जाने पर भी महाराजश्री अपने शिष्यों के आग्रह से भीतर चले गये और परकोटे के पास की भूमि देखकर बैठ गये तथा ध्यानारूद हो गये। अपनी अवज्ञा जानकर देवी को क्रोध आगया और उसने कबूतरों के आकार के, खून पीने वाले डाँसमच्छरों की सृष्टि करके मुनिराज पर धोर उपसर्ग किया। मुनिराज ने यह उपसर्ग बड़ी शान्ति से सहन किया और अपने मन को चारों आराधनाओं में रमाते हुए मोक्षनगर के स्वामी बने। __ वास्तव्यो हास्तिने धीरो, द्रोणीमति-महीधरे। गुरुदत्तो यति: स्वार्थ, जग्राहानल-वेष्टितः ॥१६३१॥ अर्थ - हस्तिनापुरवासी महामुनि गुरुदत्त द्रोणमति/द्रोणगिरि पर्वत पर ध्यानस्थ थे, किसी दुष्ट ने उनका शरीर सेमर की रुई से वेष्टित कर आग लगा दी। उस घोर वेदना में भी वे धीर-वीर रत्नत्रयरूप स्वार्थ की सिद्धि कर मोक्षपद को प्राप्त हो गये ॥१६३१॥ * गुरुदत्त मुनिकी कथा * हस्तिनापुरमें गुरुदत्त नामके राजा राज्य करते थे। उसी समय द्रोणीमति पर्वतके समीप चन्द्रपुरी नगरीमें राजा चन्द्रकीर्ति था, उसकी अभयमती नामकी अनिंद्य-सुंदरी कन्या हुई। गुरुदत्तने उस कन्या की मांग की किन्तु चन्द्रकीर्त्तिने मना किया। उससे कुपित होकर गुरुदत्तने उसपर चढ़ाई कर दी। अभयमती को जब यह वृत्तांत ज्ञात हुआ तब उसने पिता से प्रार्थना की कि मेरा इस जन्ममें गुरुदत्त ही पति हो, ऐसा मेरा प्रण है अत: आप उसीसे विवाह कर दीजिये। पुत्री की बात पिता को माननी पड़ी। मंगल वेलामें विवाह सम्पन्न हुआ। गुरुदत्त राजा अभयमतीके साथ आनंदसे रहने लगा। द्रोणीमति पर्वतमें रहने वाला एक सिंह जनता को बहुत कष्ट दे रहा है, ऐसा सुनकर गुरुदत्त राजा वहाँ आया और सिंहकी गुफामें चारों ओर आग लगाकर सिंहको जला दिया। सिंह अकामनिर्जरा करके उसी चन्द्रपुरीमें ब्राह्मण का पुत्र हुआ। गुरुदत्त नरेश कुछ समय तक राज्य करके दीक्षित होते हैं और क्रमशः विहार करते हुए उसी द्रोणीमति पर्वतके निकट उसी कपिल ब्राह्मणके खेतमें ध्यानस्थ होते हैं। उस समय कपिल अपनी पत्नी को खेत पर भोजन लानेके लिये कहकर खेत पर आया। वहाँ मुनि को देखकर उस खेत को जोतना उचित नहीं समझा अत: दूसरे
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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