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________________ मरणकण्डिका - ४४८ काङ्कयां चण्डवेगेन, छिन्न-निःशेष-विग्रहः । विषयाभयघोषोऽपि, पीडामाराधनां गतः ॥१६२९ ।। अर्थ - काकन्दी नगरीमें चण्डवेग नामक दुष्ट व्यक्ति द्वारा सारा शरीर छेद डालने पर भी अभयघोष महामुनिराज उस असह्य पीड़ा को सहन कर चारों आराधनाओं के माध्यम से मोक्षगति को प्राप्त हुए ।।१६२९ ।। * अभयघोष मुनिकी कथा * काकन्दीपुरमें राजा अभयघोष राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम अभयमती था। इन दोनों में अत्यन्त प्रीति थी। एक दिन राजा अभयघोष घूमने जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक मल्लाह मिला जो जीवित कछुए के चारों पैर बाँधकर लकड़ी में लटकाये हुए जा रहा था। राजा ने अज्ञानता वश तलवार से उसके चारों पैर काट दिये । कछुआ तड़फड़ा कर मर गया और अकाम निर्जरा के फल से उसी राजा के चण्डवेग नाम का पुत्र हुआ। एक दिन चन्द्रग्रहण देखकर राजा को वैराग्य हो गया, उसने पुत्र को राज्य-भार सौंपकर दीक्षा धारण करली। वे कई वर्षों तक गुरु के समीप रहे। इसके बाद संसार समुद्र से पार करने वाले और जन्म, जरा तथा मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज से आज्ञा लेकर और उन्हें नमस्कार करके धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार कर गये। कितने ही वर्षों बाद घूमते-घूमते काकन्दीपुर आये और वीरासनमें स्थित होकर तपस्या करने लगे। इसी समय जो कछुआ मरकर उनका पुत्र चण्डवेग हुआ था वह वहाँ से आ निकला और पूर्वभव (कछुआ की पर्याय) की कषायके संस्कारवश तीव्र क्रोधस अन्धे होते हुए उस बण्डवेग ने उनके हाथ पैर काट दिये और तीव्र कष्ट दिया। इस भयंकर उपसर्ग के आजाने पर भी अभयघोष मुनिराज मेरु सदृश निश्चल रहे और शुक्लध्यानके बलसे अक्षयानन्त मोक्षलाभ किया। प्रपेदे मशकैर्दशैः, स्वाद्यमानो महामनाः। विद्युच्चोर-मुनिः स्वार्थ, सोढ-दुःसह-वेदनः ॥१६३० ।। अर्थ - डाँस-मच्छरों द्वारा खाये जाने पर भी उदारमना विद्युच्चर महामुनिराज ने अत्यन्त घोर वेदना को सहन कर उत्तमार्थ प्राप्त किया अर्थात् मोक्षपद प्राप्त किया।१६३० ॥ * विद्युच्चर मुनिकी कथा * मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में यमदण्ड नामका कोतवाल और विद्युच्चर नामका चोर था। विद्युच्चर चोरियाँ बहुत करता था, पर अपनी चालाकीके कारण पकड़ा नहीं जाता था। वह दिनमें कुष्ठी का रूप धारण कर किसी शून्य मन्दिर में गरीब बनकर रहता था और रात्रिमें दिव्य मनुष्य का रूप धारण कर चोरी करता था। एक दिन उसने अपने दिव्यरूप से राजा को मोहित कर उनके देखते-देखते हार चुरा लिया। राजाने कोतवाल को बुलाकर सात दिन के भीतर चोर को पकड़ लाने की आज्ञा दी। छह दिन व्यतीत हो जाने पर भी चोर नहीं पकड़ा गया, सातवें दिन देवी के सुनसान मन्दिर में एक कोढ़ी को पड़ा हुआ देखकर कोतवाल को उसके ऊपर सन्देह हुआ और उसने उसे बहुत अधिक मार लगाई परन्तु कोढ़ी ने अपने को चोर स्वीकार नहीं किया। तब राजा ने कहा-अच्छा, मैं तेरा सर्व अपराध क्षमा करता हूँ और अभय का वचन देता हूँ, तू यथार्थ बात बतला
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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