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________________ मरणकण्डिका - ४९७ अर्थ - यह जगत् शरद ऋतु के मेघ सदृश नश्वर है। अहो ! ये प्राणिगण इस सत्य को क्यों नहीं जानते? जैसे बलशाली सिंह द्वारा हरिण केवल मारने के लिए पकड़े जाते हैं, वैसे ही संसारी-प्राणियों को मारने के लिए ही यमराज सामने आ रहा है। अर्थात् सभी के सामने मृत्यु मँडरा रही है ।।१८१४ ।। इस प्रकार अनित्य अनुप्रेक्षा पूर्ण हुई॥१।। अशरण अनुप्रेक्षा कर्मोदये मतिर्याति, नोपायो विद्यतेऽङ्गिनाम् । सुधा विषं तृणं शस्त्रं, बन्धुः शत्रुश्च जायते ॥१८१५॥ अस्ति कर्मोदये बुद्धिरुपायमवस्नोकते । विपक्षो जायते बन्धुः, शस्त्रं पुष्पं विषं सुधा ॥१८१६ ।। अर्थ - इस संसार में जीवों के ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की हीनता अज्ञता लाती है जिससे हेयउपादेय तत्त्व का विचार करने वाली बुद्धि नष्ट हो जाती है, उस अज्ञता का निवारण करने में शरणभूत कोई उपाय नहीं रहता। असातावेदनीय कर्मोदय से अमृत विष सदृश मारक, तृण शस्त्र सदृश घातक और बन्धुजन शत्रु सदृश बन जाते हैं। इससे विपरीत जन्म पुण्योदय आता है तब सम्पूर्ण पदार्थों को जानने में एवं हेय-उपादेय को समझने में समर्थ बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, दुःख एवं कष्टादि को दूर करने का उपाय समझ में आ जाता है, मोक्षप्राप्ति के आध -गोचर होने लगते हैं। यं सातवेदनीय के उदय में शत्रु बन्धु बन जाता है, शस्त्रप्रहार पुष्पहार और विष अमृत बन जाता है ।।१८१५-१८१६॥ प्रश्न - बुद्धि कैसे उत्पन्न होती है और वह कितने प्रकार की है ? उत्तर - मनुष्यों को मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से बुद्धि उत्पन्न होती है। स्वाभाविक एवं आगमोत्पन्न के भेद से बुद्धि दो प्रकार की होती है। जिसके पास स्वाभाविक बुद्धि तो है किन्तु यदि उसने शास्त्राभ्यास करके आगमिक बुद्धि प्राप्त नहीं की है तो वह हितकारी धर्म को उसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकता जिस प्रकार दृष्टिसम्पन्न पुरुष रूपादि को देखते हुए भी भाषा बिना उसे कह नहीं सकता। जिसके पास गुरुप्रदत्त शास्त्र तो है किन्तु उसे समझने की स्वाभाविक निजी बुद्धि नहीं है वह भी श्रुत का फल उसी प्रकार प्राप्त नहीं कर पाता, जिस प्रकार अन्धा पुरुष अपने हाथ में स्थित दीपक का फल प्राप्त नहीं कर पाता। जिसके नेत्र बन्द हैं उसे दर्पण से क्या लाभ? जो न दान देता है और न भोगता है उसे धन से क्या लाभ ? इसी प्रकार मन्दबद्धि पुरुष को शास्त्र से क्या लाभ ? जिस महापुरुष के पास स्वाभाविक और आगमिक ये दोनों बुद्धियाँ होती हैं वही अपने इष्ट आत्महित को प्राप्त कर सकता है। प्रश्न - जिस कर्मोदय से बुद्धि नष्ट हो जाती है, उस ज्ञानावरण कर्म का बन्ध किस-किस कारण से होता है ? उत्तर - ज्ञानी, ज्ञान एवं ज्ञान के उपकरणों के प्रति द्वेष भाव रखने से, ज्ञान एवं ज्ञान के साधनों को छिपाने से, प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाने से, ईर्षावश किसी को ज्ञानदान न देने से, किसी के ज्ञान में बाधा डालने से
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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