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________________ मरणकण्डिका - ४९६ अर्थ - लोक में सब जीवों की आयु नदी के प्रवाह सदृश दौड़ रही है और शारीरिक रूप-लावण्य जल में पड़ने वाले प्रतिबिम्ब सदृश शीघ्र ही पलायमान हो जाता है।॥१८०९॥ पौर्वाह्निकी यथा छाया, हीयते सुकुमारता। पराह्निकी यथा छाया, सर्वदा वर्धते जरा ॥१८१०।। अर्थ - जैसे प्रातःकाल जैसे-जैसे सूर्य ऊपर आता जाता है वैसे ही शरीर या वृक्ष आदि की छाया घटती जाती है, वैसे ही ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती है त्यों-त्यों शरीर की सुकुमारता आदि घटती जाती है। इसी प्रकार अपराह्नकाल में जैसे छाया क्रमशः बढ़ती जाती है, वैसे ही ज्यों-ज्यों आयु अवसान की ओर बढ़ती है त्योंत्यों एक बार प्रारम्भ हो जाने के बाद बुढ़ापा बढ़ता जाता है ।।१८१० ॥ प्रश्न - यदि दिन-प्रतिदिन वृद्धावस्था बढ़ती है तो क्या हानि है ? उत्तर - बढ़ती हुई वृद्धावस्था मनुष्य की सुन्दरता, सुभगता, तारुण्य, शारीरिक शक्ति, ज्ञान एवं तप को क्षीण करती जाती है। इतना ही नहीं, यह वृद्धावस्था दीनता की माता है, तिरस्कार की धाय है, मृत्यु की दूती है और सभी प्रिय साली है। अर्थात पन प्रकार की हानियों की मूल जड़ वृद्धावस्था ही है। तेजो नश्यति जीवानां, निलिंप-धनुषामिव । उत्क्ले श-नश्वरी बुद्धिर्दृष्ट-नष्टा प्रजायते ॥१८११ ।। अर्थ - जीवों के शरीर की कान्ति या तेज इन्द्रधनुष के सदृश नष्ट हो जाता है। जो बुद्धि वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को दर्शाने वाली है, नाना प्रकार के दुखों की खानरूपी कुगति को रोकने वाली है, चारित्र रूपी निधि को दिखाने के लिए दीपक के सदृश है एवं मुक्तिरूपी वनिता की सखी है, वह भी देखते-देखते नष्ट हो जाती है।।१८११॥ बलं पलायते रूपमिव रथ्यागतं रजः। जलानामिव कल्लोलो, वीर्यं नश्वरमङ्गिनाम् ॥१८१२ ।। अर्थ - (जीवों के शरीर की दृढ़ता को बल और उनके आत्मपरिणाम की दृढ़ता को वीर्य कहते हैं।) जैसे मार्ग में धूल से रचा गया कोई आकार शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, वैसे जीवों का बल शीघ्र ही पलायमान हो जाता है और उनका वीर्य भी प्रचण्ड वायु के अभिघात से उठने वाली समुद्र की लहरों के सदृश नश्वर है|१८१२॥ हिमपुजा इवानित्या, भवन्ति स्व-जनादयः। जन्तूनां गत्वरी कीर्तिः, सन्ध्या-श्रीरिव सर्वथा ॥१८१३ ।। अर्थ - स्वजन स्त्री-पुत्रादि एवं भवन, विभूति, शय्या एवं आसन आदि बर्फ के समूह के सदृश अध्रुव हैं और यश या कीर्ति भी आकाश में सुशोभित होने वाली सन्ध्या की लालिमा सदृश अनित्य है॥१८१३ ।। इदं जगच्छारद-वारिदोपमं, न जानते नश्वरमङ्गिनः कथम् । यमेन हन्तुं सकला: पुरस्कृता, मृगाधिपेनेव मृगा बलीयसा ॥१८१४ ।। इति अनित्यः।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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