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________________ मरणकण्डिका- १७९ अर्थ - जो निर्यापकाचार्य शम अर्थात् शान्ति, यम अर्थात् व्रत- नियम और दम अर्थात् इन्द्रियदमन रूपगुणों से युक्त मुनिजनों द्वारा पूजित हैं और अनेक गुणों से संयुक्त हैं, वे आचार्य महाव्रतधारी तथा प्रशमभाव वाले क्षपक के लिए अनुपम, आरोग्य, निर्दोष एवं हितकारी शिवसुख देते हैं ।। ५२९ ॥ वंशस्थ छन्द गुणैरमभिः कलितोष्टभिर्जनैः, समेत्यकीर्तिः शशिरश्मि-निर्मलाम् । आराधना सिद्धि-वराङ्गना- सखीं, ददाति सूरिः क्षपकाय निश्चितम् ||५३० ॥ इति सुस्थितः ॥ १७ ॥ अर्थ - आचारवत्व आदि आठ गुणों से मण्डित निर्यापकाचार्य की कीर्ति सर्वत्र फैलती है और वे चन्द्रकिरण सदृश निर्मल आराधना की सिद्धि रूपी श्रेष्ठ स्त्री की सखी अर्थात् उत्तम समाधि नियमतः क्षपक के लिए देते हैं || ५३० ॥ इस प्रकार 'अर्ह' आदि चालीस अधिकारों में से 'सुस्थित' नाम का सत्तरहवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥ १८. उत्सर्पण - अधिकार गुरुकुल में क्षपक के आत्मोत्सर्ग का क्रम निर्यापकं गुणोपेतं, मार्गयित्वातियत्नतः । उपसर्पत्यसौ सूरिर्ज्ञान - चारित्र - मार्गकः ॥ ५३१ ॥ अर्थ - इस प्रकार ज्ञान और चारित्र मार्ग पर आरूढ़ क्षपक बड़े यत्न से आचारवत्व आदि आठ गुणों से युक्त आचार्य का अन्वेषण कर उनके निकट जाता है ॥ ५३१ ॥ कृतिकर्म विधायासौ, परिपूर्ण त्रिशुद्धितः । आचार्य - वृषभं वक्ति, मस्तकारोपिताञ्जलिः ॥५३२ ।। अर्थ- मन, वचन और काय इन तीनों की शुद्धिपूर्वक आवर्त, शिरोनति और कायोत्सर्ग सहित सिद्धश्रुताचार्य भक्तिरूप कृतिकर्म को परिपूर्ण करके अभ्यागत मुनि अपने मस्तक पर अंजलि रख कर आचार्य श्रेष्ठ को कहता है ।। ५३२ ॥ तीर्ण श्रुत पयोधीनां समाधान - विधायिनाम् । - युष्माकमीश पादान्ते द्योतयिष्यामि संयमम् ॥५३३ ॥ > अर्थ- हे ईश ! आपने द्वादशांग श्रुतज्ञानरूपी समुद्र का दूसरा किनारा प्राप्त कर लिया है एवं आप समाधान अर्थात् समाधिमरण प्राप्त करानेवाले हैं, मैं आपके चरणों का आश्रय लेकर अपना संयम उज्ज्वल करूँगा ||५३३॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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