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________________ मरणकण्डिका - २७३ श्रीभूतिमहतीं प्राप्य, पुर-मध्ये विडम्बनाम्। परद्रव्य-रतो दीनः, प्रपद दीर्घ-संसृतिम् ॥९०५॥ अर्थ - पर-द्रव्य में आसक्त श्रीभूति ब्राह्मण नगर के मध्य अत्यधिक तिरस्कार को प्राप्त करके दीन हुआ और मरण कर दीर्घ-संसारी हुआ ।।९०५ ॥ * श्रीभूति की कथा * भरतक्षेत्र के सिंहपुर नगर में सिंहसेन राजा रहता था। उसकी रानी का नाम रामदत्ता और पुरोहित का नाम श्रीभूति था। श्रीभूति जनेऊ में कैंची बाँध कर घूमा करता था और कहता था कि यदि मैं असत्य बोल जाऊँ तो इस कैंचीसे अपनी जीभ काट दूंगा। इससे उसकी सत्यवादिता से 'सत्यघोष' ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ। एक दिन समुद्रदत्त नामका एक सेठ उसके पास बहुमूल्य पाँच रत्न रखकर कमानेके लिये विदेश गया, कमाकर जहाजमें बैठकर आ रहा था कि जहाज डूब गया, किसी लकड़ीके सहारे सेठ किनारे पहुंचा। वह अपने रत्न लेने के लिये सत्यघोष के पास गया किन्तु उसने कहा-तुम्हारे कोई भी रत्न मेरे पास नहीं हैं, इसप्रकार कहकर श्रीभूति-सत्यघोषने बेचारेको घरसे निकाल दिया। वह रोता हुआ नगरमें घूमने लगा, वह एक बात कहता जाता था कि इस सत्यघोषने मेरे पाँच रत्न लिये हैं। वह प्रतिदिन राजमहलके पास के वृक्षपर बैठकर यही बात कहता। एक समय रानी रामदत्ता ने सोचा कि यह पागल नहीं है, रोज एक ही बात करता है, इसकी परीक्षा करनी चाहिये। रामदत्ता ने सत्यघोषको जुए में हराकर उसकी जनेऊ घर में भेजकर चुपकेसे रत्न मंगा लिये। राजाने उनको और रत्नोंमें मिलाकर समुद्रदत्त को दिखाया, उसने अपने ही रत्न लिये उससे राजाको निश्चय हुआ कि यह सत्य कह रहा है, फिर राजाको श्रीभूति पर बड़ा क्रोध आया। उसके लिये तीन थाल गोबर खाना, पहलवानोंके तीन मुक्के खाना या समस्त धन देना इन तीन दण्डोंमेंसे एक दण्ड स्वीकार करनेको कहा । वह पापी पहलवानके मुक्के खाते हुए मर गया और नरकमें चला गया। दत वस्तु ग्रहण करने की प्रेरणा एते दोषा न जायन्ते, पर-द्रव्य-विवर्जने । तद्विपक्षा गुणाः सन्ति, सुन्दरा दत्त-भोजिनः ॥९०६ ॥ अर्थ - जो पर-द्रव्य-हरण का त्यागी होता है, उसके उपर्युक्त दोष नहीं होते। तथा जो दत्त वस्तु का ही उपभोग करता है उसमें उपर्युक्त दोषों के प्रतिपक्षी जो-जो गुण हैं, वे सब प्राप्त हो जाते हैं॥९०६॥ इन्द्रराज-गृहस्वामि-देवता-समधर्मिभिः । वितीर्ण विधिना ग्राह्यं, रत्नत्रितय-वर्धकम् ॥९०७॥ अर्थ - इन्द्र, राजा, गृहस्थ, देवता एवं साधर्मीजनों द्वारा विधिपूर्वक दिया गया एवं रत्नत्रय का वृद्धिकारक पदार्थ ही साधुओं को ग्राहय कहा गया है ।।९०७॥ विमुञ्चते यः परचित्त-मञ्जसा, निरीक्ष्यमाणं सदृशं मृदा सदा। अनन्य साधारण-भूति-भूषितः, स याति निर्वाणमपास्त-कल्मषः ॥९०८॥ इति अचौर्य महाव्रतम्।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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