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________________ मरणकण्डिका - २७२ अर्थ - चोर का दुराचार अर्थात् चोरी रूप पाप बन्धु, मित्र एवं अपने आश्रित रहने वालों को भी धनहरण, वध, बन्ध आदि दोर्षों में डाल देता है। वे भी भारी अपयश और दुख के भागों होते हैं ॥८९७॥ वधं बन्धं भयं रोधं, सर्वस्व-हरणं मृतिम् । विषादं यातना लोके, तस्करो लभते स्वयम् ।।८९८ ॥ अर्थ - इस लोक में चोर स्वयं वध, बन्धन, भय, रोध, सर्वस्वहरण, मरण, विषाद एवं अनेक यातनाओं को प्राप्त होते हैं ॥८९८ ॥ शङ्कमानमना निद्रां, तस्करो जातु नाश्नुते । कुरङ्ग इव वित्रस्तो, वीक्षते सकला दिशः ।।८९९॥ अर्थ - पकड़े जाने की आशंका से चोर दिन-रात सोते नहीं हैं और हरिण के समान भयभीत होते हुए सापूर्ण दिशाओं को देखते रहते हैं ।।८९९ ।। आकर्ण्य मूषकस्यापि, शब्दं शङ्कितमानसः। धावते सर्वतः सद्यः, स्खलन्स्व-मरणाकुलः ।।१०।। अर्थ - चोर सदा ही शंकित मन होता हुआ चूहे के शब्द को सुनकर भी तत्काल मरण की आकुलता से स्खलित होता हुआ चारों ओर दौड़ने लगता है।९०० ।। अदत्ते तृण-मात्रेऽपि, गृहीते संयतोऽपि ना। अप्रत्येयो यथा स्तेनस्तृणतो-जायते लघुः ॥९०१ ।। अर्थ - महान् संयम का धारी साधु भी बिना दिया तृण मात्र भी ग्रहण करके चोर सदृश अविश्वसनीय एवं तृण के समान लघु हो जाता है।९०१॥ विधाय पुरुषः स्तेयं, नारकी वसतिं गतः। सहते वेदनास्तत्र, चिरकालं सुदुःसहाः ।।९०२।। अर्थ - मरकर भी चोर नरक में वास करता है और वहाँ चिरकाल तक तीव्र कष्ट भोगता है।९०२ ।। लभते दारुणं दुःखं, स्तेनस्तिर्यग्गतावपि । प्राप्नोति प्रायशः पापो, योनी नीचामसौ चिरम् ।।९०३ ॥ ___ अर्थ - चोर तिर्यंचगति में भी दारुण दुख उठाता है। यह पापी प्राय: चिरकाल पर्यन्त नीच योनियों में ही जन्म-मरण करता है।९०३।। नृत्वेऽहता हृता वार्थाः, पलायन्तेऽखिलाः स्वयम्। न चीयन्ते प्रयत्नेऽपि, स्वयं यास्यति वा ततः॥९०४ ।। अर्थ - मनुष्य भव में भी उस पापी का धन बिना हरण किये या किसी के द्वारा हरण कर लेने पर नष्ट हो जाता है। प्रयत्न करने पर भी वह धन का संचय नहीं कर पाता । यदि कुछ संचय हो भी गया तो वह स्वयं उस धन से कहीं दूर चला जाता है।।९०४ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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