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________________ मरणकण्डिका - २७१ अर्थ - दूसरों के द्वारा धन चुराये जाने पर मनुष्य पागल हो जाता है, तथा हा-हा कार करता हुआ शीघ्र ही मर जाता है। अतः “धन ही मनुष्य के प्राण हैं" यह लोकोक्ति सत्य है ॥८९० ॥ विशन्ति पर्वतेऽम्भोधौ, युद्ध-दुर्ग-धनादिषु। त्यजन्ति द्रव्य-लोभेन, जीवितं बान्धवानपि ॥८९१॥ अर्थ - धन के लोभ से मनुष्य पर्वत, समुद्र, युद्ध, दुर्ग एवं वन आदि में प्रवेश करता है अर्थात् भटकता फिरता है। धन के लिए प्रियजनों को और अपने जीवन को भी छोड़ देता है अर्थात् मनुष्य को धन सबसे अधिक प्रिय है; उसके लिए वह अन्य सबको तो छोड़ ही देता है, अपने प्राण भी छोड़ देता है ।।८९१॥ विद्यमाने धने लोका, जीवन्ति सहबन्धुभिः। तस्मिन्नपहते तेषां, सर्वेषां जीवितं हृतम् ॥८९२ ।। अर्थ - धन होने पर मनुष्य स्त्री-पुत्रादि बन्धुजनों के साथ सुख-पूर्वक जीवन-यापन करता है। उस धन का हरण हो जाने पर मानों उन स्त्री-पुत्रादि बन्धुजनों का जीवन ही हर लिया जाता है।८९२ ।। न विश्वासो दया लज्जा, सन्ति चौरस्य मानसे । नाकृत्यं धन-स्लुब्धस्य, तस्य किञ्चन विद्यते ।।८९३॥ अर्थ - चोर के हृदय में विश्वास, दया एवं लज्जादि गुण निवास नहीं करते। धन का लोभी चोर धन के लिए कुछ भी कर सकता है, उसके लिए न करने योग्य कुछ भी नहीं है।।८९३॥ अपराधे कृतेऽप्यत्र, पक्षे लोकोऽपि जायते । बान्धवोऽपि न चौरस्य, पक्षे सन्ति कदाचन ।।८९४ ।। अर्थ - हिंसादि अन्य अपराध करने वाले के पक्ष में लोक कदाचित् हो भी जाते हैं, किन्तु चोर के पक्ष में बन्धु-बान्धव भी नहीं होते ।।८९४ ।। वितरन्ति जना: स्थानं, दोषेऽन्यत्र कृते सति। स्तेये पुनर्न मातापि, पुरुपातक-दायिनि ।।८९५ ॥ अर्थ - अन्य अपराध करने वाले को लोग स्थान देते हैं किन्तु अत्यधिक पापदायक चोरी करने वाले को माता भी आश्रय नहीं देती ।।८९५| द्रव्यापहरणं द्वारं पापस्य परमिष्यते । सर्वेभ्यः पापकारिभ्यः, पापीयांस्तस्करो मतः ॥८९६ ॥ अर्थ - पर-द्रव्य-हरण पाप आने का द्वार है। पशु-पक्षियों का घात करने वालों से और पर-स्त्रीगमन के प्रेमी जनों से भी चोर अधिक पापी होता है ॥८९६ ॥ आश्रयं स्वजनं मित्रं, दुराचारो मलिम्लुचः। सर्वं पातयते दोषे, दुष्षमे दुर्यशस्यपि ।।८९७ ।। - +
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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