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________________ मरणकण्डिका- ४२६ अर्ध - आलस्य के कारण अर्थात् आ पा वीर्या एवं मोहन तथा शरीर की प्रतिबन्धता अर्थात् आसक्ति से वह साधु परिग्रही भी होता है ।। १५३२ ।। माया- दोषाः पुरोद्दिष्टाः समस्ताः सन्ति मायया । धर्मेऽपि नि: प्रियाशस्य, धर्मोऽस्य सुलभः कथम् ।। १५३३ ।। अर्थ - तप में अपनी शक्ति छिपाने रूप मायाचारी में वे ही सब दोष होते हैं जो पूर्व में मायाचारी के दोष कहे गये हैं। इस प्रकार उत्तम तप धर्म में जिसका प्रीतिभाव नहीं है, अर्थात् जो धर्म में अनादर भाव रखता है उसको दूसरे आगामी भवों में सुलभता पूर्वक धर्म की प्राप्ति कैसे होगी ? अपितु नहीं होगी ॥ १५३३ ॥ अकुर्वाणस्तपः सर्वैर्वञ्चितोऽस्ति तपो - गुणैः । माया - वीर्यान्तरायौ च तीखी बध्नाति कर्मणी ।। १५३४ । 1 का करता है, अर्थ - पूर्व में जो संबर एवं निर्जरादि तप के गुण कहे हैं, तप न करने वाला साधु उन सब गुणों से वंचित रहता है, तथा इसके विपरीत वह साधु अपनी शक्ति छिपाने के कारण माया कषाय एवं वीर्यान्तराय कर्मों का तीव्र कर्मबन्ध करता है || १५३४ || अकुर्वतस्तपोऽन्येऽपि दोषाः सन्ति तपस्विनः । कुर्वाणस्य पुनः शक्त्या, जायन्ते विविधाः गुणा: ।। १५३५ ।। अर्थ- जो साधु शक्ति के अनुसार तप नहीं करते वे ये दोष एवं अन्य भी दोषों को उत्पन्न करते हैं तथा शक्त्यनुसार तप में तत्पर साधु को नाना प्रकार के गुणों की प्राप्ति होती है ॥। १५३५ ॥ तप के गुण लोक-द्वये पराः पूजा:, प्राप्यन्ते कुर्वता तपः । आवर्ण्यन्तेऽखिला देवाः पुरन्दर - पुरःसरा ।। १५३६ ।। अर्थ - सम्यक् तप करने वाले साधु इह लोक एवं परलोक में भी सातिशय पूजा अर्थात् आदर-सत्कार प्राप्त करते हैं, तथा तप के माहात्म्य से इन्द्र जिनके आगे है ऐसे सर्व देव उन्हें प्रणाम करते हैं । १५३६ ॥ तपः फलति कल्याणं, कृतमल्पमपि स्फुटम् । बहु - शाखोपशाखाढ्यं वट-बीजं यथा वटम् ॥। १५३७ ।। अर्थ - जैसे छोटा सा वट का बीज बहुत सी शाखा प्रशाखाओं से युक्त विस्तृत वटवृक्ष रूप से फलता है, वैसे ही विधि या संयम पूर्वक किया गया अल्प सा भी तप अत्यधिक कल्याणकारी होता है || १५३७ ॥ विधिनोप्तस्य सस्यस्य, विघ्नाः सन्ति सहस्रशः । तपसो विहितस्यास्ति, प्रत्यूहो न मनागपि । १५३८ ।। अर्थ - धान्यादि की खेती विधिपूर्वक, बहुत सावधानी एवं परिश्रम से सम्पन्न करते हुए भी उसमें सहस्रों विघ्न-बाधायें आ जाती हैं। किन्तु आगमोक्त विधि से किये जाने वाले सम्यक् तप की फल प्राप्ति में किंचित् भी कोई विघ्न नहीं आते अर्थात् तपश्चरण का फल निर्विघ्न प्राप्त होता है ।। १५३८ ।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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