SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 589
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - ५६५ देखे हुए स्थान की ओर चलना चाहिए। उसे भी न तो मार्ग में रुकना चाहिए और न पीछे ही देखना चाहिए ।।२०६० ॥ कृत्यस्तत्र समस्तेन, संस्तर: कुश-धारया। अच्छिन्नया सकृद्देशे, वीक्षिते सम-पातया ॥२०६१॥ अर्थ - कुश लेकर आगे भय हुए. पुरुष को पूर्व निर्धारित निषद्या स्थान पर पहुँच कर मुट्ठी के कुश से लगातार एक समान कुश डालते हुए एक संस्तर बनाना चाहिए जो सर्वत्र सम हो, कहीं नीचा, ऊँचा या टेढ़ा न हो।।२०६१॥ स चूर्णैः केशरैर्वापि, कुशाभावे विधीयते । समानः सर्वतोऽच्छिन्नो, धीमता विधिना सकृत् ।।२०६२ ॥ अर्थ - यदि कुश उपलब्ध न हो सके तो चावल के अथवा मसूर के चूर्ण से या प्रासुक शुद्ध केशर से किसी विशेष बुद्धिमान मनुष्य को विधि के अनुसार छिद्र रहित एवं चारों ओर से सम संस्तर बनाना चाहिए।।२०६२।। शव-स्थापित भूमि और संस्तर की विषमता का फल आदौ मध्येऽवसाने च, विषमो यदि जायते। आचार्यो वृषभः साधुर्मृत्यु रोगमथाश्नुते ॥२०६३॥ अर्थ - यदि शवस्थापित भूमि अथवा संस्तर उपरिम भाग में विषम होगा तो आचार्य का, मध्य भाग में विषम होगा तो किसी श्रेष्ठ मुनि का और यदि नीचे की ओर विषम होगा तो किसी सामान्य साधु का मरण होगा अथवा उन्हें कोई रोग होगा।॥२०६३ ।। चिता पर शव-स्थापन हेतु दिशा निर्धारण ग्रामस्याभिमुखं कृत्वा, शिरस्त्याज्यं कलेवरम् । उत्थान-रक्षणं कर्तुं, मस्तकं क्रियते तथा ॥२०६४ ।। अर्थ - जिस दिशा में ग्राम हो उस ओर शिर या पीठ करके शव को चिता पर स्थापित करना चाहिए। ग्राम की रक्षा हेतु शिर ग्राम की ओर करने का विधान कहा गया है कि यदि किसी कारण से शव उठकर भागे तो ग्राम की ओर न जावे ।।२०६४ ॥ प्रश्न - शव विसर्जन विधि में अन्य कोई विशेषता है? उत्तर - प्राचीन काल में मुनिजन वन में रहते थे, वहाँ सल्लेखना-रत क्षपक मुनि की समाधि हो जाने पर वैयावृत्य करने वाले धैर्य एवं बल के सामर्थ्य से युक्त साधु क्षपक के शव को स्वयं निषद्या पर्यन्त ले जाते थे। निषद्या वसतिका से नैऋत्य में या दक्षिण में या पश्चिम में होती थी। शव का मस्तक या पृष्ठभाग ग्राम की ओर होता था। शव-स्थापित भूमि पर संस्तर होता था। पं. आशाधर जी के कथनानुसार मृतक क्षपक का मस्तक से पैर पर्यन्त माप लेकर केशर या चूर्ण द्वारा तीन रेखाएँ त्रिकोण रूप में बनाकर चिता बनानी चाहिए।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy