SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - २४८ नहीं होता जिस प्रकार मदोन्मत्त हाथी अंकुश के बिना वश में नहीं होता । यहाँ मदोन्मत्त मनरूपी हाथी के लिए ज्ञानाभ्यास अंकुश है। प्रश्न - यहाँ यदि मन अर्थात् चित्त से चैतन्य ही ग्रहण किया जाता है तो चैतन्य का निग्रह कैसे? उत्तर - जब कभी साधक जीव की परिणति विपरीत ज्ञानरूप या अशुभ ध्यानरूप या अशुभ लेश्यारूप परिणमन करने लगती है तब उसका निरोध समीचीन ज्ञानरूप परिणाम से किया जाता है। परिणाम परिणामी को रोकता है। जैसे तुम्हें हमारे विरुद्ध परिणाम नहीं करना चाहिए। जैसे मत्त हाथी बन्धन और मर्दन आदि के बिना वश में नहीं होता, वैसे ही यह मनरूपी हाथी भी निमित्त पाकर जिस किसी भी अशुभ परिणाम में प्रवृत्त हो जाता है, पश्चात् ज्ञानाभ्यास से ही वश में किया जा सकता है। स्वभ्यस्तं कुरुते ज्ञानं, नानानर्थ-परं मनः । पुरुषस्य वशे विद्या, पिशाचमिव दुर्ग्रहम् ।।७१४ ।। अर्ध - जैसे साधित विद्या दुराग्रही पिशाच को साधक पुरुष के वश में करा देती है, वैसे ही नाना अनर्थों में प्रवृत्त होने वाले इस मन को ज्ञान अपने वश में कर लेता है ॥७९४ ।। प्रश्न - यह उपदेश क्यों और किसे दिया जा रहा है? उत्तर - मन अयोग्य कार्यों में रन है अतः इस विधि की मादी गई है , जैर पूर्ण विधि से साधना की गई विद्या पिशाच को पुरुष के वश करा देती है, वैसे ही ज्ञानाभ्यास में पूर्णत: उपयोग लगाये रखने से मन रूपी पिशाच साधक के स्वाधीन रहता है अर्थात् ज्ञानोपयोग से मनुष्य अपने मन को शुभ अथवा शुद्ध परिणामों में प्रवर्तन करा लेते हैं, अत: आचार्यदेव क्षपक को शिक्षा दे रहे हैं कि हे क्षपक ! जैसे सम्यादृष्टिजीव विद्याराधन करके पिशाच या किसी देव को स्वाधीन करके उससे धर्मप्रभावना के बड़े से बड़े अर्थात् अतिशययुक्त कार्य करा लेते हैं, वैसे ही तुम ज्ञानाराधना द्वारा अपने मन को शुद्ध परिणामों में लगाये रखने का पुरुषार्थ करो। ज्ञानेन शम्यते दुष्ट, नित्याभ्यस्तेन मानसम्। मन्त्रेण शम्यते किं न, सुप्रयुक्तेन पन्नगः ॥७९५ ।। अर्थ - नित्य ही सम्यक् प्रकार से भावितज्ञान द्वारा अशुभ विचार करने वाला मन शान्त हो जाता है, ठीक ही है भली प्रकार से जिसका प्रयोग किया गया है, ऐसे मन्त्र द्वारा क्या कृष्ण सर्प शान्त नहीं होता? अपितु होता ही है ।।७९५ ॥ प्रश्न - पूर्व श्लोक में मन को स्वाधीन करने की बात कह दी गई थी फिर इस श्लोक में क्या कहा जा रहा है ? उत्तर - पूर्व श्लोक में कहा गया था कि ज्ञानाभ्यास से मन स्वाधीन रहता है और इस श्लोक में कहा गया है कि ज्ञानाभ्यास द्वारा अशुभ परिणामों की शान्ति हो जाती है। नियम्यते मनो-हस्ती, मत्तो ज्ञान-वस्त्रया। हस्ती धारण्यक: सद्यो, भयदायी वस्त्रया ॥७९६॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy