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________________ मरणकण्डिका - १८९ प्रश्न - इन प्रभेद रूप शल्यों का क्या स्वरूप है ? उत्तर - यहाँ चारित्र में तप का अन्तर्भाव करके भावशल्य तीन प्रकार के कहे गये हैं - १, शंका, काक्षादि सम्यग्दर्शन के भावशल्य हैं। २. अकाल में स्वाध्याय करना, गुरु, शास्त्र एवं ज्ञान का अविनय करना सम्यग्ज्ञान के शल्य हैं। ३. समितियों में और गुप्तियों में अनादर भाव रखना चारित्र के शल्य हैं। ४. अनशनादि तपों में अतिचार लगाना तप के अतिचार हैं। ५. असंयम में प्रवृत्ति करना योग के शल्य हैं। शिष्य एवं श्रावक-श्राविका आदि सचित्त द्रव्य शल्य हैं। पुस्तक, कलम, श्रुत-पीठिका एवं स्वर्णादि अचित्त द्रव्य शल्य हैं और ग्राम. नगर आदि मिश्र द्रव्य शल्य हैं। ये द्रव्य शल्य चारित्राचार भावशल्य के कारण होते हैं। भाव यह है कि साधुओं को ग्राम, नगर एवं स्वर्ण आदि का तो जीवन पर्यंत के लिए त्याग होता है किन्तु कदाचित् इन वस्तुओं के प्रति मन में ममत्वभाव उत्पन्न हो जाय तो वह द्रव्य शल्य है। यह मोहभाव ही काँटे के सदृश क्लेशकारक है। अकालादि में अध्ययन करना तो साधुजीवन में लगनेवाले अतिचार हैं। भाव शल्य को दर न करने में दोष अनुद्धृते प्रमादेन, भावशल्ये शरीरिणः । लभन्ते दारुणं दुःखं, द्रव्यशल्यमिवानिशम् ॥५६४ ॥ अर्थ - प्रमाद के वशीभूत हो यदि भावशल्य को नहीं निकाला जाय तो कण्टक आदि द्रव्यशल्य के सदृश साधुजन भावशल्य से सतत ही दारुण दुख को प्राप्त होते हैं ।।५६४ ।। भावशल्यमनुद्धृत्य, ये नियन्ते विमोहिनः । भय-प्रमाद-लज्जाभिः, कस्याप्याराधका न ते ।।५६५ ।। अर्थ - भय, प्रमाद एवं लज्जा के कारण जो मोही क्षपक भावशल्य का त्याग किये बिना मरण करते हैं, वे चारों आराधनाओं में से किसी एक के भी आराधक नहीं होते ॥५६५ ।। दुःसहा वेदनैकत्र, द्रव्यशल्येऽस्त्यनुद्धते । भावशल्ये पुन: सास्ति, जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ।।५६६ ।। अर्थ - यदि द्रव्य शल्य अर्थात् कण्टकादि शरीर से निष्कासित न किये जाँय तो एक ही भव में दुःसह वेदना होती है किन्तु यदि भावशल्य को दूर न किया जाय तो इस जीव को जन्म-जन्मान्तरों में दुःसह वेदना भोगनी पड़ती है।।५६६॥ चारित्रं शोधयिष्यामि, काले श्व प्रभृता वहम् । शेमुषीमिति कुर्वाणा, गतं कालं न जानते ।।५६७॥ अर्थ - कोई क्षपक यदि ऐसा विचार करता है कि अपने चारित्र में लगे हुए अतिचारों का शोधन अर्थात् आलोचना मैं कल या परसों करूंगा, वह क्षपक गये हुए काल को नहीं जानता है ।।५६७।।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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