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________________ मरणकाण्डका - ६८ क्षेमं यावत्सुभिक्षं च, सन्ति नष्टास्त्रिगारवाः । यावन्निापका योग्या, रत्न-त्रितयसुस्थिताः ।।१६७ ।। तावन्मे देहनिक्षेपः, कर्तुं युक्तो बुधे हितः। भक्तत्यागो मतः सूत्रे, व्रत-यज्ञे ध्वजग्रहः ।।१६८ ॥ अर्थ - जब तक मेरे आतापन आदि योग धारण की शक्ति कम नहीं होती, जब तक स्मृति नष्ट नहीं होती, जब तक श्रद्धा यथावत् प्रवर्तन कर रही है, जब तक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयग्रहण में सजग हैं, जब तक क्षेम और सुभिक्ष है और जब तक तीन गारवों से रहित और योग्य अर्थात् समयानुकूल दर्शन, ज्ञान एवं चारित्रवाले निर्यापकाचार्य अवस्थित हैं, तब तक ही मुझे शरीर के त्याग हेतु विद्वानों से स्तुत. आगम में कहीं हुई आराधनारूपी पताका का ग्रहण, व्रतयज्ञ एवं भक्तप्रत्याख्यान करना योग्य है ||१६६-१६८ ।। प्रश्न - उपर्युक्त कथन का क्या अभिप्राय है? उत्तर - अभिप्राय यह है कि आतापन अर्थात् तपश्चरण की शक्ति नष्ट हो जाने से कर्मनिर्जरा नहीं होगी, रत्नत्रय के धारण योग्य स्मृति नष्ट होते ही रत्नत्रय सदोष हो जायेगा, श्रद्धा नष्ट होते ही मिथ्यात्व आ जावेगा, चक्षु और कर्ण आदि इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाने से असंयम का परिहार नहीं हो सकेगा, देश में क्षेम और सुभिक्ष न होने से अर्थात् देश में शत्रु सेना के उपद्रव तथा मारी आदि रोगों का सद्भाव और दुर्भिक्ष आदि होने से वातावरण अशान्त रहेगा और यदि निर्यापकाचार्य रत्नत्रय से रहित एवं ऋद्धि गारव, रस गारव तथा सात गारव से युक्त होंगे तो वे क्षपक को भी असंयम की ओर ले जावेंगे। इन कारणों से क्षपक सल्लेखना की वेदना को सहन नहीं कर सकेगा, जिसके फल-स्वरूप वह दुर्गति का पात्र होगा और धर्म की अप्रभावना होगी, अत: उपर्युक्त कारण समुदाय की सुलभता में ही भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना धारण करना बुद्धिमानों के द्वारा हितकर कहा गया है। सिद्धान्त में आराधना को ही पताका और व्रतयज्ञ कहा है। 'जीविताशा विनाश' गुण विज्ञापन एवं स्मृतिपरिणामो, निश्चितो यस्य विद्यते । तीव्रायामपि बाधायां, जीविताशास्य नश्यति॥१६९॥ ॥ इति परिणामः।। अर्थ - 'मैं शरीर का त्याग करूँगा ही ऐसा जो दृढ़ निश्चय कर लेता है वह तीव्र वेदना होने पर भी 'उसका प्रतिकार करके मैं जीवित रहूँ' ऐसी चिन्ता नहीं करता अतः ‘जीवन की आशा का विनाश' उसका गुण सूचित किया गया है॥१६९।। प्रश्न - ‘जीविताशा विनष्ट' गुण अलग से क्यों कहा गया है? उत्तर - "मैं शरीर का त्याग करूँगा ही" और रोग आदि का प्रतीकार करके 'मैं जीवित रहूँ। ये दोनों संकल्प अग्नि और जल के स्वभाव सदृश विरोधी हैं। क्षपक में अन्य सब गुण हों किन्तु यदि ‘जीविताशा' विनष्ट
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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