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________________ मरणकण्डिका - १२ ८. बालपण्डित मरण - स्थूल हिंसादि विरतिरूप देशचारित्र और सम्यक्त्व युक्त जीवों का जो मरण होता है वह बालपण्डित मरण है। ९. सशल्य मरण - मोक्षमार्ग में दोष लगाना, रत्नत्रय मार्ग का नाश करना, मिथ्यामार्ग का कथन करना या मोक्षमार्ग का कथन न करना, मोक्षमार्गी संघ में भेद डालना ये सब मिथ्यादर्शनशल्य हैं। चिरकाल तक पार्श्वस्थ आदि साधु के रूप में विचरण करके भी गुरु से आलोचना नहीं करना माया शल्य है तथा 'आगामी काल में यही होना चाहिए इस प्रकार के मानसिक उपयोग को निदान कहते हैं। इस प्रकार मिथ्या, माया और निदान शल्यों से युक्त मरण सशल्य भरण है। १०. बलाका मरण - जो विनय एवं वैयावृत्त्य आदि में आदरभाव नहीं रखता, प्रशस्त योग के धारण में आलसी है, प्रमादी है, समिति गुप्ति आदि में अपनी शक्ति छिपाता है, धर्मचिन्तन आदि के समय निद्रा के वशीभूत जैसा रहता है तथा उपयोग न लगने से जो ध्यानादि से दूर भागता है, उनका मरण बलाका मरण है। अथवा जो निःशल्य एवं विरक्त होकर चिरकाल तक रत्नत्रय का पालन करता है किन्तु जीवन के अवसान में संस्तर पर आरूढ़ होकर जो शुभोपयोग से दूर भागता है, उसका मरण बलाका या बलाय मरण है। ११. वोसट्टमरण - इन्द्रिय आदि के आधीन होकर मरण होना। १२. विप्पासणमरण - दुर्भिक्ष में, भयंकर जंगल में, शत्रु का या राजा का या चोर आदि का भय होने पर, एकाकी सहन करने में अशक्य ऐसे तिर्यंचकृत उपसर्ग होने या ब्रह्मचर्यव्रत का विनाश आदि रूप दूषित चारित्र होने पर संसार से विरत और पापों से भयभीत साधु संयम दूषित हो जाने के भय से कोई निदान नहीं करता हुआ अरहन्त के समीप आलोचना कर एवं प्रायश्चित्त लेकर शुभलेश्यापूर्वक श्वास निरोध कर जो मरण करता है वह विप्पासण मरण है। १३. गिद्धपृट्ट मरण - उपर्युक्त कारणों से और उपर्युक्त ही आत्मविशुद्धि से युक्त जो मुनि शस्त्र द्वारा प्राणत्याग करते हैं, वह गृद्धपुट्ट मरण है। इन दोनों मरणों का निषेध भी नहीं है और आज्ञा भी नहीं है। १४. भक्तप्रत्याख्यान मरण - काय एवं कषाय को कृश करते हुए विधिपूर्वक संन्यास धारण कर मरण करना या होना। १५. इंगिनीमरण - इसमें मुनिजन अपनी सेवा दूसरों से नहीं कराते। अपना कार्य स्वयं करते हुए आहार-जल-त्याग पूर्वक मरण होना इंगिनीमरण है। १६. प्रायोपगमन मरण - स्व-पर सेवा से रहित आहार-जल त्याग कर वन आदि एकान्त स्थान में अकेले रह कर काष्ठ सदृश शरीर का त्याग कर उत्तम ध्यान में लीन रहते हुए प्राण विसर्जन या मरण करना प्रायोपगमन मरण है। १७. केवली मरण या पण्डित-पण्डित मरण - चौदहवें गुणस्थान में केवली जिन का निर्वाण या मोक्ष होना केवली मरण या पण्डित पण्डित मरण है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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