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________________ मरणकण्डिका - १०३ अर्थ - बुद्धिमानों को कषायाग्नि के उत्पन्न होते ही उसे बुझा देना चाहिए | उसको बुझाने का जल है - इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार एवं नमस्कार आदि। इस जल के पड़ते ही क्रोधाग्नि शान्त हो जाती है॥२७५ ।। प्रश्न - इच्छाकार, मिथ्याकार आदि किसे कहते हैं और इनसे गुरु आदि की क्रोधाग्नि कैसे शान्त हो जाती है? उत्तर - इच्छाकार - हे भगवन् ! मैं आपका उपदेश या आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ और इस उपदेशामृत की निरन्तर वाञ्छा करता हूँ। शिष्य द्वारा कहे हुए नम्रता के ऐसे वचनों को इच्छाकार कहते हैं। मिथ्याकार - मैंने आपको प्रत्युत्तर दिया, प्रतिकूल वचन कहे और आपकी अवज्ञा की मेरे वे सब पातक आपकी अनुकम्पा से मिथ्या हों। तथाकार - हे भगवन् ! आपकी शिक्षा यथार्थतः सत्य है। आप मुझ अल्पमति पर प्रसन्न हों, मैं आपके पावन चरणकमलों में नम्रीभूत होकर बार-बार नमस्कार करता हूँ। शिष्य की उद्दण्डता से गुरु की कोपाग्नि प्रज्वलित हुई थी। जब शिष्य ने अनुभव किया कि इस क्रोधरूपी अग्नि के ताप से मेरा तो अहित होगा ही किन्तु मेरे परमोपकारी गुरु को और रत्नत्रय रूप फलों से सुशोभित संघ को संताप होगा लथा प्रमाण की निन्दा हेगी, हब वह विवेकी एवं धर्मवत्सल शिष्य इच्छाकारादि उत्तमजल से उस अनिष्टकारी क्रोधाग्नि को शीघ्र ही बुझा देता है। प्रश्न - गुरु की कठोर आज्ञा या कोई ताड़ना युक्त कटु वचन सुनकर यदि शिष्यादि को क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो जाय तब गुरुजन उसे कैसे शमन करते हैं? उत्तर - महापुरुष सर्व प्राणियों के निर्व्याज बन्धु होते हैं । वे कभी अपने शिष्यों पर अभ्यन्तर से कुपित नहीं होते, क्योंकि उनके पावन हृदय में शिष्य का हित करने के भाव ही छिपे रहते हैं, अतः वे कोपायमान शिष्य को एकान्त में ले जाकर अपने शीतल वचनरूपी जल से उपशान्त कर उसे विश्वास में ले लेते हैं। अर्थात् उसकी श्रद्धा को पूर्ववत् दृढ़ कर देते हैं। शिष्य भी गुरु की वात्सल्यमयी अमृतवाणी को कर्णपुटों से पीकर सन्तुष्ट हो जाता है और तत्काल गुरुचरणों में नम्र होकर प्रायश्चित्त मांग अपने हृदय की पवित्रता को प्रदर्शित कर देता है। ___ शिष्य की क्रोधाग्नि शान्त करने के लिए गुरु को समाचार नीति का अवलम्बन नहीं लेना पड़ता क्योंकि "मुखदानं हि मुख्यानां, लघूनामभिषेचनम्'। अर्थात् महापुरुषों का सम्मुख होकर बोलना ही छोटों को राज्याभिषेक के सदृश आनन्ददायक होता है। संलिख्यं गौरवं संज्ञा, नोकषाया महाभटाः। समस्ता निन्दिता लेश्या, समाधानं यता सता ।।२७६ ।। अर्थ - इस प्रकार सज्जनों को अपना चित्त समाधानरूप अर्थात् शान्त रखने के लिए कषायों के सदृश गारव, संज्ञा एवं नौ नोकषाय रूपी महाभटों को तथा अशुभ लेश्याओं को भी निन्दित करना चाहिए। अर्थात् छोड़ देना चाहिए ॥२७६॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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