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________________ भरणकोण्डका - १०४ प्रश्न - गारव आदि किसे कहते हैं और ये कितने-कितने होते हैं ? उत्तर - शब्द गारव, ऋद्धिगारव और सात गारव के भेद से गारव तीन प्रकार के हैं। शब्दगारव-वर्णों के उच्चारण का गर्व करना। ऋद्धिगारव - शिष्य, शास्त्र, पीछी, कमण्डलु एवं पट्ट आदि परिग्रह के द्वारा अपने को ऊँचा प्रगट करना। सात गारव - आहार-पान आदि से उत्पन्न सुख की लीला से मस्त होकर मोहमद करना। संज्ञा - आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहते हैं। अथवा जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दुख पाते हैं और जिनका सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दुख प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा और परिग्रह संज्ञा के भेद से ये चार प्रकार की होती हैं। नोकषाय - ईषत् अर्थात् किंचित् कषाय को नोकषाय कहते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद के भेद से ये नौ प्रकार की हैं। कषार्यों के सदृश ये चारित्र का विनाश नहीं कर पातीं, चारित्र में मल उत्पन्न करती हैं, अतः इन्हें ईषत् कषाय कहते हैं। लेश्या - कषाय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के भेद से ये छह प्रकार की हैं। इनमें से प्रारम्भ की तीन अशुभ और शेष तीन शुभ हैं। संसार-त्याग का इच्छुक उत्कृष्ट तप करता है वर्धितावग्रहः साधुः, प्रकटास्थि-सिरादिकः । तनूकृत-समस्ताङ्गो, भवत्यध्यात्म-निष्ठितः ।।२७७ ।। बाह्याभ्यन्तरी कृत्वा, योगी सल्लेखनामिति । संसार-त्यजनाकाञ्छी, प्रकृष्टं कुरुते तपः॥२७८॥ इति सल्लेखना- सूत्रम्॥ अर्थ - जो प्रतिदिन अपने अवग्रह-अर्थात् नियमों को वृद्धिंगत कर रहा है और सारा शरीर कृश होने से जिसका नसाजाल एवं अस्थियाँ स्पष्ट दिखाई देने लगी हैं ऐसे अंगोपांगों को कृश करनेवाला साधु अपनी आत्मा में निष्ठ हो जाता है ।।२७७ ।। इस प्रकार बाह्याभ्यन्तर अर्थात् काय-सल्लेखना तथा कषाय-सल्लेखना करने पर संसारत्याग का दृढ़ निश्चय करके वह योगी उत्कृष्ट तप अर्थात् धर्मध्यान, शुक्लध्यान करता है ।।२७८ ।। सल्लेखना सूत्र पूर्ण हुआ।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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