SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 126
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - १०२ प्रश्न - यहाँ कार्य-कारण भाव से क्या दर्शाया गया है? उत्तर - कारण विद्यमान होने पर कार्य हो भी और न भी हो, किन्तु कारण के बिना कार्य कदापि नहीं होता। जैसे मिट्टीरूप कारण के रहते ही घटरूप कार्य और तन्तुरूप कारणों से पटरूप कार्य उत्पन्न होता है, उसी प्रकार परिग्रह रूप कारण ही राग-द्वेष परिणामरूप कार्य के निमित्त हैं, परिग्रह के अभाव में साधु के रागद्वेष नहीं होते, अत: कल्याणेच्छु साधु को सर्व परिग्रह का त्याग कर देना चाहिए । क्रोधरूप अग्नि प्रज्वलित होने का कारण और उसका फल वाक्यासहिष्णुता-वात्या-प्रेरित: कोप-पावकः । उदेति सहसा चण्डो, भूरि-प्रत्युत्तरेन्धनः ॥२७३॥ स दग्ध्वा ज्वलित: क्षिप्रं, रत्नत्रितय-काननम्। विदधाति महातापं, संसारागार-सञ्चयैः ॥२७४ ।। अर्थ - शिष्य के असह्य एव प्रतिकूल वचनरूपी वायु से प्रेरित क्रोधाभि गुरु के हृदय में सहसा उत्पन्न हो जाती है। पश्चात् प्रत्युत्तर रूप महान् ईंधन को प्राप्त कर वह कोपाग्नि प्रचण्डरूप धारण कर लेती है, जो शीघ्र ही गुरुदेव के रत्नत्रय रूप वन को जला देती है, जिससे संसार रूप प्रज्वलित अंगार दीर्घ काल पर्यन्त भयंकर सन्ताप देते रहते हैं ।।२७३-२७४ ।। . प्रश्न - इस रूपक का क्या भाव है? उत्तर - इस रूपक से यह दर्शाया गया है कि साधु एवं आचार्य आदि गुरुजनों को क्रोध क्यों और कैसे उत्पन्न होता है तथा उसका फल क्या होता है। यथा - शिष्य की कोई अयोग्य प्रवृत्ति देख कर गुरु उसे सारणवारण रूप उपदेश देते हैं। शिष्य अभिमानी या उच्छृखल है, अथवा गुरु का उपदेश पक्षपाती है या तिरस्कार मिश्रित है या कटाक्षरूप है, जिस किसी भी कारण से शिष्य प्रतिकूल वचन कहता है, जो गुरु को सह्य नहीं। यहीं एक प्रकार की वायु हुई, इससे गुरु के मन में कोपाग्नि भभक उठी। गुरु ने पुनः शिष्य को समझाने का प्रयास किया। शिष्य ने पुनः प्रतिकूल उत्तर दिये । वे प्रतिकूल वचन गुरु की क्रोधाग्नि में ईंधन का काम कर गये, जिससे वह आग और अधिक उद्दीप्त हो उठी जिसने गुरु का रत्नत्रय रूपी उपवन जला दिया क्योंकि कषाय प्रवेश करते ही महाव्रतादि पलायमान हो जाते हैं। रत्नत्रय का उपवन भस्म होते ही वहाँ अनन्तानुबन्धी या अप्रत्याख्यान नामधारी धधकते हुए अंगार एकत्र हो गये जो चिरकाल पर्यन्त महाभयंकर सन्ताप देने में समर्थ हैं। अर्थात् गुरुजी के उसी क्षण अप्रत्याख्यान या अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय आ गया जो अनन्तभवों तक संसार-परिभ्रमण का कारण है। कभी गुरु की कठोर आज्ञा आदि का निमित्त पाकर साधर्मी एवं शिष्य की क्रोधाग्नि भी प्रज्वलित हो जाती है। उत्पन्न हुई कषाय को शान्त करने का उपाय जायमान: कषायाग्निः, शमनीयो मनीषिणा। इच्छा-मिथ्या-तथाकार-प्रणिपातादि-वारिभिः ॥२७५ ॥
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy