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________________ मरणमण्डिमा १०१ दोषान्न प्राञ्जलीभूय, भाषते यद्यशेषतः । न कुर्वन्ति तदा शुद्धिं, प्रायश्चित्त-विचक्षणाः ।।६४६ ॥ अर्थ - यदि क्षपक मुनि सरलभाव से सम्पूर्ण दोषों को नहीं कहता है तो प्रायश्चित्तदान में कुशल आचार्य उसकी शुद्धि नहीं करते, अर्थात् उसे प्रायश्चित्त नहीं देते हैं ।।६४६ ।। नि:शेष भाषते दोषं, यदि प्राञ्जलमानसः । तदानीं कुर्वते शुद्धि, व्यवहार-विशारदाः ॥६४७॥ अर्थ - यदि क्षपक सरल हृदय से सर्व अतिचारों को क्रमानुसार कहते हैं तो प्रायश्चित्तशास्त्रविशारद आचार्य उसकी शुद्धि करते हैं अर्थात् नियमतः उसे प्रायश्चित्त देते हैं ।।६४७॥ सम्यगालोचते तेन, सूत्रं मीमांसते गणी। अनालोचे न कुर्वन्ति, महान्तः काञ्चन क्रियाम् ।।६४८ ।। अर्थ - क्षपक द्वारा सम्यगालोचना किये जाने पर सूत्र अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य इससे अमुक-अमुक अपराध हुए हैं, इसके लिए कौन-कौन सा प्रायश्चित्त उचित होगा, इसके लिए ग्रन्थावलोकन द्वारा विचार करते हैं क्योंकि महापुरुष बिना विचार किये कोई भी कार्य नहीं करते हैं॥६४८ ।। ज्ञात्वा वक्रामवक्रां वा, सूरिरालोचनां यते । विदधाति प्रतीकारं, शुद्धिरस्ति कुतोन्यथा ॥६४९ ।। अर्थ - क्षपक मुनि की सरल परिणामों से या कुटिल परिणामों से की हुई आलोचना को भली प्रकार जानकर आचार्य प्रायश्चित्त दान द्वारा उसके दोर्षों की शुद्धि करते हैं। अन्यथा अर्थात् आलोचना को बिना जाने शुद्धि करना कैसे सम्भव है? ॥६४९ ॥ जातस्य प्रतिसेवातो, हानिर्वृद्धिश्च देहिनाम्। पापस्य परिणामेन, तीव्रा मन्दा च जायते ।।६५० ।। अर्थ - जीवों के असंयम आदि उत्पन्न दोषों में हानि-वृद्धि होती रहती है। तीव्र पाप परिणाम से तीव्रता और मन्द अशुभ परिणाम से मन्दता होती है।६५० ॥ प्रश्न - यह हानि-वृद्धि और तीव्रता-मन्दता कैसे होती है ? उत्तर - तीव्रता-मन्दता और हानि-वृद्धि होने के यहाँ दो कारण हैं। एक कारण असंयम आदि दोष करते समय और दूसरा कारण उन दोषों की आलोचना का समय । यथा-पान करते समय जो पाप-बन्ध हुआ था, पश्चात् पीछे होनेवाले शुभ या अशुभ परिणामों से उसमें तीव्र हानि या तीव्र वृद्धि अथवा मन्द हानि या मन्द वृद्धि हो जाती है। वैसे ही आलोचना के पश्चात् तीव्र शुभ परिणाम होने से पाप की तीव्र हानि और मन्द शुभ परिणाम होने से पाप की मन्द हानि होती है। प्रायश्चित्त देते समय आचार्य क्षपक के इन सब परिणामों का सूक्ष्मता से विचार करते हैं।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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