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________________ मरणकण्डिका - २०८ अर्थ - जैसे सिर का बोझ नीचे उतार देने पर बोझ ढोनेवाला हल्का अर्थात् सुखी हो जाता है, वैसे ही पापी से पापी मनुष्य भी यदि निन्दा गर्हा एवं आलोचनादि कर लेता है तो वह शीघ्र ही पाप भार से हल्का हो जाता है । अथवा 'कृतपापोऽपि' अर्थात् अशुभकर्म के कारणभूत असंयम आदि को भी पाप कहा जाता है, अतः असयम आदि में भी प्रवर्तन कर लेनेवाला साधु यदि गुरु के समीप जाकर अपनी निन्दा गर्हा करता है। तो वह निराकुल और सुखी हो जाता है ।। ६४२ ।। भावशुद्धि के अभाव में दोष भावशुद्धिं न कुर्वन्ति, भवन्तोपि बहुश्रुताः । चतुरङ्गे विमूढा ये, दुःख पीड्या भवन्ति ते ।।६४३ ॥ अर्थ - जो मूढमुनि बहुश्रुतधारी अर्थात् महाविद्वान् होकर भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं में भावशुद्धि नहीं रखते अर्थात् इनमें लगे दोषों की आलोचना गुरु के समक्ष नहीं करते वे चतुर्गति के दुखों से पीड़ित होते हैं || ६४३ ॥ आलोचना सुन कर आचार्य तीन बार पूछते हैं त्रिः कृत्वालोचनां शुद्धां, भिक्षोर्विज्ञाय तत्त्वतः । स मध्यस्थो रहस्यज्ञो, दत्ते शुद्धिं यथोचिताम् ॥ ६४४ ॥ अर्थ - क्षपक साधु की तीन बार की गई शुद्धि को अर्थात् आलोचना को भली प्रकार जान कर रागद्वेष के उद्रेक से रहित मध्यस्थ भाववाले एवं प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता आचार्य क्षपक के दोषानुसार उचित प्रायश्चित्त देते हैं ॥ ६४४ ॥ राजकार्यातुरासत्य - सशल्यानामिव त्रिधा । दोषाणां पृच्छना कार्या, सूरिणागम - वेदिना । १६४५ ।। अर्थ - राजकार्य, रोगी, असत्य एवं शल्य के विषय में जैसे तीन बार पूछा जाता है वैसे ही आगमज्ञ आचार्य को क्षपक के दोषों के विषय में तीन बार पूछना चाहिए || ६४५ || प्रश्न- तीन बार कहाँ-कहाँ पूछा जाता है और क्षपक से भी उसके दोष तीन बार क्यों पूछना चाहिए? उत्तर - जैसे राजा द्वारा आज्ञा दिये हुए कार्य के विषय में राजा से यथा अवसर तीन बार पूछा जाता है कि क्या यह कार्य इसी प्रकार करूँ अथवा कराऊँ? वैद्य रोगी से तीन बार पूछता है तुमने क्या-क्या खाया था? क्या - क्या किया था? रोग की क्या दशा है ? इत्यादि, असत्यभाषी से या चोरी होने पर भी तीन बार पूछा जाता है कि चोरी कैसे हुई एवं क्या-क्या गया ? शरीर में होने वाले घाव की भी तीन बार परीक्षा करते हैं कि घाव की कील निकली या नहीं? यह भरा या नहीं? वस्तु खरीदते समय भी उसके मूल्यादि को तीन बार पूछा जाता है, वैसे ही आचार्यदेव को क्षपक से उपायपूर्वक तीन बार पूछना चाहिए कि अपने अपराध पुन: कहो, मैंने अभी सुने नहीं हैं या मैं भूल गया हूँ, इत्यादि । बच्चन कहने के ढंग से, मुखाकृति पर आने वाले भावों से, उस समय होने वाली शारीरिक चेष्टाओं से एवं तीनों बार में एक ही प्रकार से दोषों का निवेदन करने से हृदय की सरलता या वक्रता का अर्थात् आलोचना की शुद्धि का पता लग जाता है।
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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