SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका - २१० स्थिरत्वं नयते पूर्व, संसारासुख-कारणम् । एतेषां चिनुते पापं, संक्लिष्टः क्षिपते गुणम् ।।६५१ ।। अर्थ - संक्लेश परिणाम सांसारिक दुखों के कारणभूत पूर्वबद्ध पाप कर्म को तीव्र शक्तिवाला कर देता है, नवीन पापकर्म का संचय कर देता है और सम्यक्त्व आदि गुणों को नष्ट कर देता है ।।६५१ ॥ प्रश्न - संक्लेश कितने प्रकार का होता है और उसका क्या कार्य है? उत्तर - संक्लेश परिणाम दो प्रकार के होते हैं। १. सावद्य संक्लेश, २. मात्र चित्त की बाधा रूप निरवद्य संक्लेश। सावध संक्लेश - असंयमादि सेवन करने से उत्पन्न पापकर्म को बाँधनेवाला पाप परिणाम अथवा तीव्र अशुभ परिणाम रूप सावध संक्लेश है। यह संक्लेश पूर्वबद्ध कर्मों को दृढ़ करता है कारण कि स्थितिबन्ध कषाययुक्त परिणामों के निमित्त से होता है। तीव्र स्थिति-अनुभागवाला नवीन कर्मबन्ध करता है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप गुणों का घात करता है, अशुभ परिणामों को तीव्र और दृढ़ करता है तथा नाना प्रकार की हजारों वेदनाओं से व्याप्त नारकादि दुर्गतियों के भय की वृद्धि करता है। चित्त की बाधारूप संक्लेश सावध रूप नहीं होता। मेरा ज्ञान निर्मल क्यों नहीं होता? मेरा चारित्र अतीव उज्ज्वल क्यों नहीं होता? मेरा शरीर इतना दुर्बल क्यों है कि तपोयोग को सहन नहीं कर पाता? मेरा मन आत्मचिन्तन में स्थिर क्यों नहीं हो पाता? इस प्रकार का संक्लेश चित्त में बाधा उत्पन्न करता रहता है। कृत्वापि कल्मषं कशित्, पश्चाताप-कृशानुना । दह्यमान-मना देशं, सर्व वा हन्ति निश्चितम् ।।६५२ ।। अर्थ - किसी क्षपक ने असंयम आदि रूप कोई दोष कर लिया, पीछे पश्चाताप रूपी अग्नि के द्वारा उसका मन दग्ध हो उठा कि 'हाय ! मैंने यह क्या कर लिया ?' तब वह संसार से भयभीत होकर संयमाचरण में तत्पर हो गया, जिसके प्रभाव से अर्धात् संयमाचरण के मन्द अथवा मध्यम परिणाम से कर्मों की एकदेश निर्जरा करता है और तीव्र विशुद्ध परिणाम होते हैं तो सर्व कर्मों का घात कर देता है ॥६५२ ।। नालिकाधमवज्ज्ञात्वा, प्रमाणं कुरुते सुधीः । ततः शुध्यति यावत्या, तावतीं स परिक्रियाम् ॥६५३॥ अर्थ - प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता और प्रायश्चित्त देने की क्रिया से परिचित बुद्धिमान आचार्य सुनार के सदृश उस अपराधी साधु के परिणामों को जानकर जितने प्रायश्चित्त से उसकी विशुद्धि हो उतना ही अधिक या अल्प प्रायश्चित्त उसे देते हैं ।।६५३ ।।। प्रश्न - यहाँ 'सुनार के सदृश जानकर' इसका क्या अभिप्राय है ? दूसरे के परिणाम आचार्य कैसे जान सकते हैं? उत्तर - यहाँ स्वर्णकार से तात्पर्य है कि जैसे स्वर्णकार स्वर्ण की कम या अधिक अशुद्धि देखकर उसी के अनुकूल अग्नि की सामर्थ्य या असामर्थ्य देखकर तदनुसार कम या अधिक हवा से उसे प्रज्वलित कर स्वर्ण
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy