SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 571
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणण्डेिका - ५४७ अर्थ - जैसे धूम के द्वारा, जाज्वल्यमान अग्नि का ज्ञान हो जाता है वैसे ही संकेत समझने में विलक्षण बुद्धि वाले एवं शास्त्र के ज्ञाता निर्यापकाचार्य एवं परिवारक साधुसमुक्षाय अपक धारा किये जाने वाले संकेत विशेषों से उसकी आराधना के उद्योग की सावधानी समझ लेते हैं ।।१९८७ ।। इस प्रकार ध्यान का अधिकार पूर्ण हुआ ।।३७ ।। ३८, लेश्या-अधिकार इत्थं समत्वमापन:, शुभध्यान-परायणः। आरोहति गुणश्रेणी, शुद्ध-लेश्यो महामनाः ॥१९८८ ।। अर्थ - इस प्रकार समता भाव को प्राप्त एवं प्रशस्त ध्यान में परायण वह महामना साधु शुद्ध अर्थात् पीत या पद्म या शुक्ल लेश्या युक्त होता हुआ गुणश्रेणी का आरोहण करता है अर्थात् अंधिक-अधिक विशुद्धि को वृद्धिंगत करता है॥१९८८ ।। लेश्या के भेद बाह्याभ्यन्तर-भेदेन, द्वेधा लेश्या निवेदिता। शुभाशुभ-विभेदेन, पुनधा जिनेश्वरैः ॥१९८९॥ अर्थ - जिनेन्द्रदेव के द्वारा लेश्या के दो भेद कहे गये हैं, बाह्यलेश्या और अभ्यन्तर लेश्या, अर्थात् द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या। उन दोनों के पुनः शुभ और अशुभ के भेद से दो-दो भेद होते हैं ।।१९८९ ।। कृष्णा नीला च कापोती, तिम्रो लेश्या विगर्हिताः। धीरो वैराग्यमापन्न:, स्वैरिणीरिव मुञ्चते ।।१९९० ।। अर्थ - कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या, ये तीन लेश्यायें गर्हित अर्थात् अप्रशस्त हैं। जैसे धीर-वीर पुरुष दुराचारिणी स्वच्छन्द स्त्री का त्याग कर देते हैं, वैसे ही वैराग्य को प्राप्त धीर क्षपक इन तीन अशुभ लेश्याओं का त्याग कर देता है।॥१९९०॥ तेजः पद्मा तथा शुक्ला, तिम्रो लेश्याः प्रियङ्कराः । निर्वृत्तिमिव गृह्णाति, निर्बाध-सुखदायिनीम् ॥१९९१ ।। अर्थ - पीत, पद्म और शुक्ल, ये तीन लेश्यायें प्रियंकर अर्थात् प्रशस्त हैं। जैसे हितेच्छु पुरुष निर्बाध सुख देने वाली मुक्ति को ग्रहण करते हैं, वैसे ही क्षपक तीन शुभ एवं प्रशस्त लेश्याओं को ग्रहण करता है।।१९९१॥ प्रश्न - लेश्या किसे कहते हैं, वे कितनी हैं, उनके भेद-प्रभेद और लक्षण क्या हैं तथा उनके परिणार्मो की तरतमता का क्रम क्या है ? उत्तर - कषाय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy