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________________ मरणाकण्डिका - १७३ अर्थ - जो स्वकार्य में उद्यमशील होते हुए दूसरों के कार्य को भी कठोर और कटु वचनों से साधते हैं वे पुरुष तो लोक में अत्यन्त दुर्लभ हैं ।।५०२॥ निवर्तनं न दोषेभ्यो, न गुणेषु प्रवर्तनम् । विधत्ते क्षपकः सर्व-दोषमत्याजितो यतः ।।५०३ ।। अर्थ - आचार्य यदि क्षपक को पीड़ित न करें तो वह मायाशल्यरूपी दोष से न निकले और दोष से निकले बिना निरतिधार रत्नत्रय गुण में प्रवृत्त न हो ।।५०३।। नित्योत्पीड़ी पीडयित्वा समस्तांस्तस्माद्दोषांस्त्याजयेत्तं हितार्थी । व्याथिध्वंसं किं विधत्ते न वैद्यः तन्वन्बाधां व्याधितस्येष्टकारी ॥५०४॥ अर्थ - क्षपक के हित का इच्छुक उत्पीड़ी आचार्य क्षपक को कठोर वचनादि से पीड़ा पहुँचा कर उससे समस्त दोष उगलवा लेता है। अर्थात् उसका रत्नत्रय शुद्ध कर देता है। ठीक है, क्योंकि रोगी का हितचिन्तक वैद्य रोगी को कड़वी औषधि का सेवन एवं पथ्यपालन द्वारा रोगी को बाधा या पीड़ा पहुँचा कर व्याधि का नाश नहीं करता है क्या ? अवश्यमेव करता है ।।५०४ ।। इस प्रकार अवपीड़क गुण का कथन पूर्ण हुआ। अपरिस्रावी गुण का विवेचन दोषो निवेशितो यत्र, तप्ते तोयमिवायसि। न निर्याति महासारे, स ज्ञातव्योऽपरिस्रधः ॥५०५ ।। अर्थ - जैसे तपाये हुए लोहे के द्वारा पिया हुआ जल कभी बाहर नहीं निकलता, वैसे ही क्षपक द्वारा महासारभूत आचार्यदेव को निवेदित किए गए दोष अन्य मुनिजनों पर कभी प्रगट नहीं होते, वे आचार्य अपरिस्राव गुण से युक्त होते हैं ।।५०५ ।। अतिचारास्तपो वृत्त-ज्ञान-सम्यक्त्व-गोचराः। मनो वाक्काय-योगेन, जायन्ते त्रिविधा यतेः॥५०६ ।। अर्थ - मन, वचन और काय इन योगों से यदि क्षपक के सम्यग्दर्शन में अथवा सम्यग्ज्ञान में या सम्यक्चारित्र में या सम्यक् तप में एकदेश से या सर्वदेश से जो-जो अतिचार लगे हों वे सब अतिचार आचार्य से कहने चाहिए॥५०६।। प्रश्न - सम्यग्दर्शन, ज्ञान-चारित्र और तप आदि के कौन-कौन से अतिचार हैं ? उत्तर - चौथे विनय अधिकार में इन अतिचारों का निरूपण किया जा चुका है, फिर भी प्रश्नानुसार कहते हैं - सम्यग्दर्शन के अतिचार - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा और उसका संस्तव । सम्यग्ज्ञान के अतिचार - असमय में स्वाध्याय, श्रुत एवं श्रुतधारियों का अविनय, अनुयोग आदि
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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