SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरणकण्डिका -१७३ के प्रारम्भ में उसके योग्य अक्ग्रह न करना, गुरु का नाम छिपाना, स्वर-व्यंजनों का हीनाधिक करके पढ़ना एवं अर्थ का अन्यथा कथन करना। चारित्र के अतिचार - पाँच महाव्रत के अतिचार ही चारिन के अतिचार हैं। अथवा प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं इन भावनाओं से रहित व्रत पालन करना । अनशन तप के अतिचार - स्वयं का उपवास होते हुए भी दूसरों को भोजन कराना; मन, वचन काय से दूसरों के भोजन की अनुमति देना, उपवास की वेदना से पीड़ित होने पर मन से आहार की अभिलाषा करना, मुझे पारणा कौन करायेगा अथवा मेरा पारणा कहाँ होगा ? इत्यादि चिन्ता करना । अथवा रसीले पदार्थों या रसीले आहार के बिना मेरी थकान दूर नहीं होती इत्यादि, उपवास के कारण प्रचुर निद्रा में पड़-कर छहकाय के जीवों की बाधा में मन, वचन और काय की प्रवत्ति होना। मैंने यह क्लेशकारी उपवास व्यर्थ ही किया. यह तो सन्तापकारी है अब मैं इसे कभी नहीं करूँगा, इस प्रकार का संकल्प करना । अवमौदर्य तप के अतिचार - मन से उदरभर भोजन में आदर, दूसरों को उदर भर भोजन कराने की चिन्ता, 'जब तक आपकी तृप्ति न हो तब तक भोजन करना ऐसे वचन कहना, 'मैंने आज बहुत भोजन किया' ऐसा किसी के द्वारा कहे जाने पर 'आपने बहुत अच्छा किया ऐसा कहना तथा हाथ के संकेत से कण्ठप्रदेश को स्पर्श करके बतानः नि म आक-उपोज किया अपना आप आकाठ भोजन कर लेना। वृत्तिपरिसंख्यान तप के अतिचार - घर, मुहल्ला, गली, दाता पुरुष या दात्री स्त्री की संख्या आदि का संकल्प करके दूसरों को भोजन कराना है' इस उद्देश्य से किये हुए संकल्प का उल्लंघन कर चर्या को जाना, या अन्य किसी कारण से संकल्प तोड़कर चर्या करना। रसपरित्याग तप के अतिचार - रसों में अति आसक्ति, दूसरे को रस युक्त आहार का भोजन कराना अथवा रसयुक्त आहार की अनुमति देना, या प्रेरणा देना। विविक्तशय्यासन तप के अतिचार - यथायोग्य लक्षणों से हीन वसतिका में शयनासन तथा योग्य लक्षणों से युक्त वसतिका में अरति, इत्यादि। कायक्लेश तप के अतिचार - गर्मी आदि के सन्ताप से पीड़ित हो शीतल द्रव्य-प्राप्ति की इच्छा करना. मेरा सन्ताप कैसे दर हो ऐसी चिन्ता करना. पर्व में भोगे हए शीतल्ल द्रव्य और शीतल प्रदेशों का स्मरण करना, तीव्र धूप से द्वेष करना, पीछी से शरीर का मार्जन किये बिना गर्म प्रदेश से शीतल प्रदेश में या शीतल प्रदेश से गर्म प्रदेश में आना-जाना, वृक्ष के मूल में जाकर हाथ, पैर या शरीर से जलकायिक जीवों को पीड़ा देना, शरीर में लगे जल कणों को हाथ आदि से पोंछना, शिलातल आदि पर पड़े हुए जलकणों को हाथ, पैर आदि से दूर करना, कोमल एवं गीली भूमि पर सोकर शान्ति का अनुभव करना, जलबहाव वाले निचले प्रदेशों में ठहरना, निश्चित स्थान पर रहते हुए वर्षा कब होगी या यह वर्षा कब बन्द होगी ऐसी चिन्ता करना एवं वर्षा से बचने के लिए छाता या चटाई आदि का उपयोग करना। प्रायश्चित्त तप के अतिचार - अपने लगे हुए दोषों में मन से ग्लानि न होना अतिचार है। अज्ञान से, प्रमाद से, आलस्य से और कर्मों की गुरुता से मैंने अशुभ कर्म के बन्ध में कारणभूत जो यह कार्य किया है वह बुरा किया है, ऐसे भाव होना जुगुप्सा है। इस प्रकार के भाव न होना प्रायश्चित्त तप के और अतिचारों
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy