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________________ मणद्धिका - १८७ उत्तर - काल भेद, देश भेद, द्रव्य भेद, परिणाम भेद और साहाय्य अथवा निमित्त भेद से दोषों में भी गुरुपना और लघुपना हो जाता है, तथा दोषों की गुरुता एवं लघुता के अनुसार ही गुरुजन गुरु, मध्यम अथवा लघु प्रायश्चित्त देकर शुद्धि कर सकेंगे, तभी यथार्थ शुद्धि हो सकेगी। अत: काल आदि की भिन्नतापूर्वक दोष कहना आवश्यक है। आलोचना के भेद एवं उनका स्वरूप आलोचना द्विधा साधोरौघी पदविभागिका। प्रथमा मूलया तस्य, परस्य गदिता परा ।।५५७ ।। __ अर्थ - साधु की आलोचना दो प्रकार की होती है - एक ओघी और दूसरी पदविभागी। इनमें मूल को प्राप्त यति के पहली ओघी आलोचना होती है और उससे अन्य आलोचना पदविभागी कही जाती है॥५५७॥ प्रश्न - इस ओघी और पदविभागी आलोचना का विशेष भाव क्या है ? उत्तर - यहाँ ओघी आलोचना का अर्थ है सामान्यालोचना और पदविभागी आलोचना का अर्थ है विशेषालोचना । वचन सामान्य एवं विशेष इन दो धर्मों का आश्रय लेकर ही प्रवृत्त होते हैं, अत: आलोचना के भी ये दो भेद कहे गये हैं। सर्व मुनिधर्म का विनाश करनेवाले दोष की आलोचना करना सामान्यालोचना है और किसी गुणविशेष में लगे दोष की आलोचना करना पदविभागी अर्थात् विशेषालोचना है। अर्थात् जिसकी मूल से ही दीक्षा छेद दी जाती है वह साधु अपने दोषों की सामान्यालोचना करता है किन्तु जो सम्यक्त्व आदि गुणविशेष में दोष लगाता है वह अपने दोष की विशेषालोचना करता है। महापराध हो जाने के कारण जिसकी सर्व पूर्वदीक्षा नष्ट कर पुन: दीक्षा दी जाती है उसे मूल प्रायश्चित्त कहते हैं। जो मुनि मूल प्रायश्चित्त के योग्य होता है वह सामान्यालोचना करता है और जो मूल प्रायश्चित्त के अतिरिक्त शेष अन्य प्रायश्चित्त के योग्य होता है वह विशेषालोचना करता है। सामान्यालोचना का स्वरूप और उसका स्वामी ओघेन भाषतेऽनल्प-दोषो वा सर्व-घातकः। इतः प्रभृति वाच्छामि, त्वत्तोऽहं संयम गुरो ! ॥५५८॥ अर्थ - जिस यति द्वारा महादोष हो चुका है या सम्यक्त्व एवं व्रतों का सर्वनाश हो चुका है वह सामान्य से कहता है कि हे गुरुदेव ! मेरे सर्व व्रत नष्ट हो चुके हैं। मैं आपके द्वारा आज पुन: संयम प्राप्त करना चाहता हूँ। इस प्रकार ओधी आलोचना होती है ।।५५८ ॥ प्रश्न - अपराधी मुनि सामान्यालोचना कैसे करता है? उत्तर - अपराधी मुनि आचार्यदेव से कहता है कि हे प्रभो ! मेरे द्वारा अपरिमित अपराध हुए हैं, मेरे सम्यक्त्व का और सर्व व्रतों का घात हो चुका है, मैं रत्नत्रय से तुच्छ हूँ। अर्थात् में रत्नत्रय में आप सबसे छोटा
SR No.090279
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorChetanprakash Patni
PublisherShrutoday Trust Udaipur
Publication Year
Total Pages684
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size16 MB
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